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पिछला दशपूर्वका पाठक हुआ, जिनोसें हमारी वज्र शाखा उत्पन्न हुई, इनका प्रबंध आवश्यक वृत्तिसें जान लेना, सो वज्रखामी श्रीमहावीरस्वामीसे पीछे चार सौ छनवे और विक्रमादित्यके संवत छबीसमें जन्मे, और आठ वर्ष घरमें रहे, चौमालीस वर्ष सामान्य साधुव्रतमें रहे, और छत्तीस वर्षे युगप्रधान पदवी में रहे, सर्वायु अट्ठाशी वर्षकी भोगी, तथा इन आचार्यके समयमें जावड शाह सेठने श्री शत्रुजय तीर्थका विक्रम संवत् (१०८) में तेरहमा बडा उद्धार करा, तिसकी श्रीवज्रस्वामीनें प्रतिष्ठा करी, यह श्रीवज्रस्वामी श्रीमहावीरस्वामीसें (५८४) वर्ष पीछे स्वर्ग गये, इन श्री वज्रस्वामीके समयमें दशमा पूर्व, और चौथा संहनन, और संस्थान, विच्छेद होगये, यहां श्री सुहस्ती सूरि लेके श्रीवज्रस्वामी तक अपर पट्टावलियोंमें १ श्रीगुणसुंदरसूरि, २ श्रीकालिकाचार्य, ३ श्रीस्कंधलाचार्य, ४ श्रीरेवतीमित्र,सरि, ५ श्रीधर्मसूरि, ६ श्रीभद्रगुप्ताचार्य, ७ श्रीगुप्ताचार्य, यह सात क्रमसें युगप्रधान आचार्य हुये, तथा श्रीमहाबीरखामीसें पांचसौ तेतीस (५३३) वर्ष पीछे श्रीआर्यरक्षितसूरिने सर्व शास्त्रोंके अनुयोग पृथग् कर दीये ये प्रबंध आवश्यक वृत्तीसें जान लेना, तथा श्रीमहावीरस्वामीसें (५४८) में वर्षे त्रैराशिकके जीतनेवाले श्रीगुप्तसूरि हुये, तिनका प्रबंध उत्तराध्ययनकी वृत्ति, तथा श्रीविशेषावश्यकसें जान लेना, जिसने त्रैराशिक मत निकाला तिसका नाम रोहगुप्त था, वो श्रीगुप्तसरिका चेला था, जिसका उल्लूक गोत्र था जब रोहगुप्त गुरुके आगे हारा, और मत कदाग्रह न छोडा तब अंतरंजिका
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