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१४२ अवंती पार्श्वनाथका मंदिर और मूर्ति बनाय स्थापन करी थी, तिसकी कितनेक वर्ष लोकोनें पूजा करी, अवसर पाकर ब्राह्मणोंने जिनप्रतिमाकों जमीनमें दाटके ऊपर यह शिवलिंग स्थापनकरा इत्यादि सर्व वृत्तांत कहा, और हे राजन् इस मेरी स्तुतिसें शासन देवताने शिवलिंग फाडके वीचमेंसें यह प्रतिमा प्रगट कर दीनी, अब तूं सत्यासत्यका निर्णय कर ले, तब विक्रमादित्यने एकसौ गाम मंदिरके खरच वास्ते दीये और देवके समक्ष गुरुमुखसे बाराव्रत ग्रहण करे, और सिद्धसेनकी बहुत महिमा करी अपने स्थानमें गया और वांदीद्र (सिद्धसेनदिवाकरकों) गुरुने जिनधर्मकी प्रभावनासें तुष्टमान होकर संघमें लीया, अरु पूर्ववत् आचार्य बनाया ॥
एकदा प्रस्तावे सिद्धसेन दिवाकर विहार करते हुये मालवेके देशमें जो ओंकारनामें नगर है, तहां गये तिस नगरके भक्त श्रावकोने आचार्यकों विनती करी, जैसें हे भगवन् इसी नगरके समीप एक गाम था, तिसमें सुंदर नामा राजपुत्र ग्रामणी था, तिसकी दो स्त्रीयां थी, एक स्त्रीके प्रथम पुत्री जन्मी वो स्त्री मनमें खीजी तिस अवसरमें उसकी सौकभी प्रसूत होनेवाली थी, तब तिस बेटीवालीने विचारा कि इसके पुत्र न होवे तो ठीक है, क्यों कि नही तों यह पतिकों वल्लभ हो जावेगी, तब दाईसें मिलके उस्से पैदा हुआ पुत्रको बाहिर गिरा दीया, और तत्कालका मरा हुआ लडका उसके आगे रख दीया, पीछे जो लडका वाहिर गेरा गया था, उसको कुलदेवीने गौकारूप करके पाला जब आठ
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