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११५ इत्यादि गर्व संयुक्त भगवान् श्रीमहाबीरस्वामीके पास पहुंचा, और भगवानकों चौतीस अतिशय संयुक्त देखा, तथा देवता, इंद्र, मनुष्योंसे परिवृत देखा, तब बोलने की शक्तिसें हीन हुआ, भगवंतके सन्मुख जाके खडा होगया, तब भगवंतने कहा किहे गौतम इंद्रभूति तूं आया, तब गौतमजीने मनमें विचारा कि, जो मेरा नामभी ये जानते हैं, तोभी मैं सर्व जगे प्रसिद्ध हूं मुझे कौन नहीं जानताहै इन्ने मेरा नाम लीया इस बातमें कुछ आश्चर्य और सर्वज्ञ इसको नहीं मानता हूं, किंतु मेरे मनमें जो संशय है तिसकों दूर कर देवे तोमें इसकों सर्वज्ञ मानें तब भगवंत ने कहा, हे गौतम । तेरे मनमें यह संशय हैः-जीव है कि नहीं? और यह संशय तेरेकों वेदोंकी परस्पर विरुद्ध श्रुतियोंसे हुवा है वो श्रुतियों यह है, सो कहते हैं ।
"विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीतीत्यादि" इस्से विरुद्ध यह श्रुति हैं-"सर्वैः अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि" इन श्रुतियोंका अर्थ जैसा तेरे मनमें भासन होता है, तैसाही प्रथम श्रुतिका अर्थ कहते हैं। नीलादि रूप होनेसें विज्ञानही चैतन्य है चैतन्य विशिष्ट जो नीलादि तिस्से जो धन सो विज्ञानघन, सो विज्ञानघन इन प्रत्यक्त परिविद्यमान रूप पृथ्वी, अप्प, तेज, वायु, आकाश, इन पांच भूतों से उत्पन्न होकर फेर तिनके साथही नाश होजाता है अर्थात् भूतों के नाश होनेसें उनके साथ विज्ञानघनकाभी नाश होजाता है, इस हेतुसे प्रेत्यसंज्ञा नही अर्थात मरके फेर परलोक में और
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