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जान लेनां ॥ यह सुनकर चौथा व्यक्तजीनें भी अपना पांचसै शिष्योंकेसाथ दीक्षा लीनी ॥४॥
तब पांचमां सुधर्मा नामा पंडित आया, इसकाभी उसीतरे सर्वाधिकार जानलेना यावत् तेरे मनमें यह संशय है कि मनुष्यादि सर्व जैसे इस भवमें है तैसेंही अगले जन्ममें होते है कि, मनुष्य कुछ और पशुआदिभी बन जाते है, यह संशय तेरेकों परस्पर विरुद्ध वेद श्रुतियोंसें हुआ है सो वेद श्रुतियों यह है-"पुरुषो वै पुरुषत्वमश्रुते पशवः पशुत्वं इत्यादीनि" यह श्रुति जैसा इस जन्ममें पुरुष स्त्री आदि है वे पर जन्ममेंभी ऐसेही होवेंगे, इस्से विरुद्ध यह श्रुति है "शृगालो वै एष जायते यः सपुरीपो दह्यत इत्यादि" इन सर्व श्रुतियोंका भगवानने अर्थ करके संशय दूर करा, तब अपनें पांचसे शिष्योंके साथ दीक्षा लीनी ॥५॥
तिस पीछे छठा मंडित पुत्र आया तिसके मनमें यह संशय था, कि बंध मोक्ष है, वा नहीं है यह संशयभी विरुद्ध श्रुतियोंसे हुवा है, सो श्रुतियों यह है “स एष विगुणोविभुर्न बध्यते, संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा ।। एष बाह्यमभ्यंतरं वा वेदइत्यादीनि" इस श्रुतिका ऐसा अर्थ तेरे मनमें भासन होता है, “एषअधिकृतजीवः" अर्थात् यह जीव जिसका अधिकार है “विगुण" अर्थात् सत्यादि गुण रहित सर्वगत सर्व व्यापक पुण्य पाप करके इसकों बंध नहीं होता है, और संसारमें भ्रमण भी नहीं करता है,
और कर्मोसें छूटताभी नहीं है, बंधके अभाव होनेसे दूसरोंको कर्मबंधसे छोडाताभी नहीं है, इस कइनेसें आत्मा अकर्ता है, सोई
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