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कहता है, यह पुरुष अपणी आत्मासें बाहिर महत् अहंकारादि
और अभ्यंतर स्वरूप अपना जानता नही, क्योंकि जानना ज्ञानसें होता है, और ज्ञानजो है, सो प्रकृतिका धर्म है, और प्रकृति अचेतन है, बंध मोक्ष नही इस श्रुतिसें बंध मोक्षका अभाव सिद्ध होता है । अब इस्से विरुद्ध श्रुति यह है सो कहते हैं "नही वै शरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसंतं प्रियाप्रिये न स्पृशत इत्यादीनि" इसका अर्थ कहते है-सशरीरस्य, अर्थात् शरीर सहितकों सुख दुःखका अभाव कदापि नहीं होता है, तात्पर्य यह है कि संसारी जीव सुख दुःखसे रहित नहीं होता है, और अमूर्त आत्माको कारणके अभावसे सुखदुःखस्पर्शनहीं कर शक्ते हैं, इस श्रुतिसें बंधमोक्षसिद्धहोते है, तथा तेरे मनमें यहभी बात है कि युक्तिसेंभी बंधमोक्षसिद्धनहीं होते है इत्यादि संशय कहकर भगवान् तिसके पूर्वपक्षकों खंडन करके संशय दूर करा, तब मंडितपुत्र साढेतीनसौ विद्यार्थियोंके साथ दीक्षित भया ॥६॥
॥७॥ तिसके पीछे सातमा मोर्यपुत्र आया, तिसके मनमें यह संशय था कि-देवता है किंवा नही है यह संशय परस्पर विरुद्ध श्रुतियोंसे हुआ वो श्रुतियो यह है “सएषयज्ञायुधीयजमानोंजसास्वर्गलोकं गच्छति इत्यादि" श्रुतियो स्वर्ग तथा देवताओंकी सिद्धि करतीयों है, इससे विरुद्ध श्रुति यह है-अपामसोमं अमृता अभूम् अगमामज्योतिर्विदामदेवान् ॥ किंनूनमसान्तृणवदरातिः किमुधूर्तिरमृतमर्त्यस्येत्यादीनि “तथा को जानाति मायोप
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