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और तूं तिन वेदपदोंका अर्थ नहीं जानता है वे वेदपद ये है"विज्ञानघन इत्यादि" पहिले गणधरकी श्रुति जाननी, इस्सें देहसें जीव (आत्मा) सिद्ध नहीं होता है, और इस श्रुतिसें विरुद्ध यह श्रुति है, ( सत्येव लभ्यस्तपसा ह्येषब्रह्मचर्येण नित्यज्योतिर्मयो हि शुद्धोयं पश्यति धीरायतयः संयतात्मान, इत्यादि) इस श्रुतिसें देहसें भिन्न आत्मा सिद्ध होता है, इसवास्ते तुझकों संशय है, पीछे भगवान्नें यह सर्व दूर करा, तब तीसरा वायुभूतिनेंभी अपने पांच सौ विद्यार्थीयोंकेसाथ दीक्षा लीनी ॥३॥
वायुभूतिकी तरें शेष आठ गणधर क्रमसें आये, तिसमें चौथा व्यक्तजी आया, तिनके मनमें यह संशय था कि पांचभूत है कि नही ए संशय विरुद्ध श्रुतियोंसें हुआ, वे परस्पर विरुद्ध यह हैं"स्वप्नोपमं वै सकलमित्येव ब्रह्मविधरंजसाविज्ञेयइत्यादीनि" तथा इससे विरुद्ध यह श्रुति है "द्यावापृथिवी जनयन् देवइत्यादि" तथा पृथिवीदेवता, आपोदेवता, इत्यादीनि इनका अर्थ तेरे मनमें ऐसा भासन होता है-अर्थ, स्वप्न सरीखा वैनिपात अवधारणार्थे संपूर्णजगत है "एष ब्रह्मविधि" अर्थात् यह परमार्थ प्रकार है, अंजसा सीधेन्यायसें जानना योग्य है, यह श्रुति पंचभूतका अभाव कहती है, और श्रुतियों पांचभूतकी सत्ताकों कहती है इसवास्ते तेरेकों संशय है, तेरे मनमें यहभी है कि-युक्तिसे पांचभूत सिद्ध नहीं होते है, पीछे भगवाननें इसका पूर्वपक्ष खंडन करा वेद पदोंका यथार्थ अर्थ कहा, यह अधिकार उक्त ग्रंथोंसें
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