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आत्मा ही है तथा उतशब्द अतिशब्द के अर्थमें है, और अपिशब्द समुच्चय अर्थमें है अमृतत्वस्य अमरणभावका अर्थात् मोक्षका ईसानः प्रभुः अर्थात् स्वामी (मालक) है, यदिति यचेति च शब्द के लोप होनेसें यदिति बना इसका अर्थ जो अन्न करकें वृद्धिकों प्राप्त होता है, “यदेजति" जो चलता है ऐसे पशुआदिक और जो नहीं चलता है ऐसे पर्वतादिक और जो दूर है मेरु आदिक " यत्अंतिके" उ शब्दअवधारणार्थमें है, जो समीप अर्थात नैंडे है सो सर्व पूर्वोक्त पदार्थ पुरुष अर्थात् ब्रह्मही है, इस श्रुतिसें कर्मका अभाव होता है अरु दूसरी श्रुतिसें तथा शास्त्रांतरोंसे कर्म सिद्ध होते है, तथा युक्तिसें कर्मसिद्ध होते नहीं क्योकि अमूर्त आत्माकों मूर्त्ति कर्म लगते नहीं, इसवास्ते मैं नही जानता कि कर्म है या नही यह संशय तेरे मन में है, ऐसा कह कर भगवाननें वेदश्रुतियोंका अर्थ बराबर करके तिसका पूर्वपक्ष खंडन करा, सो विस्तारसें मूलावश्यक तथा विशेषावश्यकसें जानलेना अग्निभूतिनेंभी गौतमवत् दीक्षा लीनी ॥ २ ॥
अग्निभूतिकी दीक्षा सुनके तीसरा वायुभूति आया, परंतु आगे दोनों भाईयों के दीक्षा लेलेनेंसे इसकों विद्याका अभिमान कुछभी न रहा, मनमें विचार करा कि मैं जाकर भगवानकों वंदना ( नमस्कार ) करूंगा ऐसा विचारके आया आकर भगवंतकों वंदना ( नमस्कार ) करा । तब भगवंतने कहा तेरे मनमें संशयतो है परंतु क्षोभसें तूं पूछ नही शक्ता है, संशय यह है कि जो जीव है सो देहही है और यह संशय तेरेकों विरुद्ध वेदपद श्रुतिसें हुआ है,
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