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१३७ चौकमें लाये, तिस अवसरमें राजा विक्रमादित्य हाथी ऊपर चढा सन्मुख मिला तब राजाने सर्वज्ञ पुत्र ऐसा बिरुद सुनके तिनकी परीक्षा वास्ते, हाथी उपर बैठेहीनें मनसे नमस्कार करा तब आचार्यनें धर्मलाभ कहा, राजाने पूछा कि विनाही वंदना करे, आप मेरेको धर्मलाभ क्यों कर कहा, क्या यह धर्मलाभ बहुत सस्ता है, तब आचार्यने कहा यह धर्मलाभ क्रोडचिंतामणिरत्नोंसेंभी अधिक है जो कोई हमकों वंदना करता है उसको हम धर्मलाभ कहते हैं और ऐसेंभी नहीं जो तुमने हमकों वंदना नहीं करी तुमने भी अपने मनसें वंदना करी, तो मनही सर्व कार्यमें प्रधान है, इस वास्ते हमने धर्म लाभ कहा है, और तुमने मेरी परीक्षा वास्तेही मनमें नमस्कार करा है, तब विक्रमराजा तुष्टमान होकर, हाथीसें नीचे उतरकर सर्वसंघकी समक्ष वंदना करी, और एक क्रौड अशर्फी दीनी, परंतु आचार्यनें अशर्फीयों नही लीनी, क्योंकि वे त्यागी थे, और राजाभी पीछा नहीं लेता, तब आचा. र्यकी आज्ञासे संघपुरुषोने जीर्णोद्धारमें लगादीनी, राजाके दफतरमें तो ऐसा लिखा है ॥ श्लोक ॥ धर्मलाभ इति प्रोक्ते, दुरादुच्छूितपाणये ॥ सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं धराधिपः ॥१॥ श्री विक्रमराजाके आगें सिद्धसेन दिवाकरनें ऐसेंभी कहा था कि ॥ गाथा ॥ पुण्णे वाससहस्से । सयंमि वरिसाण नवनवइगए ॥ होई कुमारनरिंदो, तुहविक्कमराय सारित्थो ॥१॥ अन्यदा सिद्धसेन चित्रकूटमें गये, तहां बहुत पुराने जिनमंदिरमें एक बड़ा मोटा स्थंभ देखा, तब किसीकों पूछा कि यह स्थंभ किसतरांका है,
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