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१२२ मान् गीर्वाणानि इयंवरुणकुबेरादीन इत्यादि"-इनका ऐसा अर्थ तेरे मनमें भासन होता है, कि-पाणीकों पीते हुये एतावता सोमलताकारस पीते हूये अमृत ( अमरण ) धर्मवाले हम हुये हैं ज्योति स्वर्ग और देवताकों हम नहीं जानते हैं तथा देवता हम हुये हैं, यहभी नहीं जानते देवता तृणेकी तरें हमारा क्या कर शक्ते है, यह श्रुति अभाव प्रतिपादन करती है, और यह भावकी प्रतिपादक है, "धूर्तिजराअमृत मर्त्यस्य" अमृतत्व प्राप्तपुरुषकों क्या कर सक्ती है । इन श्रुतियोंका यथार्थ अर्थ करकें, और तिसका पूर्वपक्ष खंडन करके भगवंतनें इनका संशय दूर करा, तब यहभी साढेतीनसो छात्रोंके साथ दीक्षित भया ॥ ७॥
॥८॥ तिस पीछे आठमाअकंपित आया उसके मनमेंभी वेदकी परस्पर विरुद्ध श्रुतियोंके पदोंसें, नरकवासी है कि नहीं । यह संशय उत्पन्न हुआथा, वो परस्पर विरुद्ध श्रुतियों लिखते हैं"नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति इत्यादि" इसका अर्थयह ब्राह्मण नारक होवेगा जो शूद्रका अन्न खाता है । इस श्रुतिसें नरक सिद्ध होता है, तथा "नह वै प्रेत्यनरके नारका संतीत्यादि" सुगमार्थः । इस श्रुतिसें नरकका अभाव सिद्ध होता है । इनका अर्थ करकें और पूर्वपक्ष खंडन करके भगवानने तिसका संशय दूर करा तब अकंपितनेंभी तीनसौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी ॥ ८॥
॥९॥ तिस पीछे नवमा अचलभ्राता आया, तिसकोंभी परस्पर वेदकी विरुद्ध श्रुतियोंके पदोंसें, पुण्य पाप है कि नहीं । यह संशय था, सो वेद पद यह-"पुरुष एवेदंनि सर्व इत्यादि" दूसरे
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