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मानतुंगं वीरसूरिं । जयदेवदेवानंदकौ । विक्रम नरसिंहं च समुद्रविजयं तथा ॥३॥ मानदेवं विबुधप्रभं । जयानन्दं रविप्रभं । यशोभद्रं विमलचन्द्रं । देवचन्द्र नेमिचन्द्रौ च ॥४॥
॥९॥ श्रीस्थूलभद्रजीके पाट ऊपर श्रीआर्यमहागिरिजी बैठे, आर्यमहागिरिजीके शिष्य, १ बहुल २ बलिस्सह हुआ, और बलिस्सह सूरिजीका शिष्य श्रीउमास्वातिसरिजी हुवे जिनोंने तत्वार्थ सूत्रादि शास्त्र रचे हैं और श्रीउमास्वातिसूरिजीका शीष्य श्रीश्यामाचार्यजी श्रीप्रज्ञापनासूत्र (पन्नवणासूत्रके) कर्ता हुवे, यह कालिकाचार्य श्रीमहावीरस्वामीसें तीनसो छिहत्तर वर्ष पीछे स्वर्ग गया, और आर्य महागिरिजी तीस वर्ष गृहवासमें रहे, चालीस वर्ष व्रतपर्याय, और तीसवर्ष युगप्रधानपदवी, सर्वायु सो वर्षका पालके स्वर्ग गया २॥
॥१०॥ श्री आर्यमहागिरिजीके पाट ऊपर श्रीआर्यसुहस्तिसरि बैठे जिनोंने एक भिख्यारीकों दीक्षादीनी, वो कालकरके चंद्रगुप्तराजाका पुत्र बिंदुसारराजा और बिंदुसारका पुत्र अशोकश्री राजा और अशोकश्रीका पुत्र कुणाल, तिस कुणालका पुत्र संप्रति राजा हुआ, तिस संप्रतिराजाने जैनधर्मकी बहुत वृद्धि करी, क्योंकि कल्पसूत्रके प्रथम उद्देसेमें श्री महावीरस्वामिके समयमें अबकी निसपत बहुत थोडे देशोमें जैनधर्म लिखा है, मारवाड, गुजरात, दक्षिण, पंजाब, वगैरे देशोमें जो जैनधर्म है, सो संप्रति राजाहीसें फैला है, यद्यपि इस कालमें जैनी राजाके न होनेसें जैनधर्म सर्व जगें नहिं, परंतु संप्र
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