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१०२ देवलोकमें देवता हुआ हुं, और तेरे स्नेहसें इहां तेरेपास मिलनेकों आया हुं, सोमें तेरे सुखवास्ते क्या काम करूं ॥ इतना कहकर जब बलभद्रजीनें आपने हाथों ऊपर कृष्णजीकों लिया, तब कृष्णका शरीर पारेकी तरे हाथसें क्षरके भूमि ऊपर गिर पडा, फेर मिलकर संपूर्ण शरीर पूर्ववत् हो गया । इसीतरे प्रथम आलिंगन करनेसें, फेर विरतांत कहनेंसें, और हाथोंपर उठानेसें जान लिया । कि यह मेरे पूर्व भवका अति वल्लभ बलभद्र भाई है तब श्रीकृष्णजीने संभ्रमसें उठके नमस्कार करा । बलभद्रजीनें कहा, हे भाई, जो श्रीनेमिनाथ स्वामीने कहा था । यह विषय सुख महा दुःखदाई है सो प्रत्यक्ष तुमकों प्राप्त हुआ । तुज कर्म नियंत्रितकों में स्वर्गमेंभी नहिं लेजा सक्ता हुं । परंतु तेरे स्नेहसें तेरेपास में रहा चाहता हुं तब कृष्णजीनें कहा, हे भ्राता तेरे रहनेंसेंभी मैनें करे हुये कर्मका फल तो मुझकों अवश्य भोगवनाही है। परंतु मुझकों इस दुःखसें वो दुःख बहुत अधिक है । जोमें द्वारिका, और सकल परिवारके दग्ध हो जानेसें, एकला कौशंबवनमें जरा कुमरके तीरसें मरा । और मेरे शत्रुवोकों सुख, तथा मेरे मित्रोंकों दुःख हुआ, जगत्में सर्व यदुवंशी बदनाम हुये, इसवास्ते हे भ्राता, तूं भरतखंडमें जाकर, चक्र, शारंग, शंख, गदाका धरनेवाला, और पीला वस्त्र, तथा गरुड ध्वजाका धरनेवाला, ऐसा मेरा रूप बनाकर विमानमें बैठाकर लोकोंको दिखलाव । तथा नीला वस्त्र हल मूशल शस्त्रका धरनेवाला ऐसा रूपसें तूं विमानमें बैठके अपना
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