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(जिनकुं) पुस्तकशून्य,आचारमात्र,ज्ञान वतलाया। शिष्यूंके ऊपर बहुतसा प्रेम रखता थका, कपिल मुनि, शेषमें काल करके, ५ मा ब्रह्म देवलोकमें देवता हुवा । उत्पत्तिके अनंतर, तत्काल अवधि झानसें देखा । कि मेने परभवमें क्या दान पुन्य करा है। तब पूर्व भव देखनेसें, अपणा आसुरी शिष्यफू ग्रंथज्ञानशून्य देखा । तब विचार कीया । की मेरा शिष्य कुछ जानता नही है (इसवास्ते) में इस कुं कुछ तत्वोपदेश करुं । ऐसा विचार करके, कपिल देव आकाशमें, पंचवर्णा मंडलमें रहकर, तत्वज्ञानका उपदेश कर्ता भया । अव्यक्तसें व्यक्त प्रगट होता है ( इत्यादि ) धर्मका स्वरूप आकासवानीसें सुनके, आसुरीने तिस अवसरमें, पष्टि तंत्र, प्रमुख अनेक ग्रंथ वनाये (फेर ) इसकी संप्रदायमें एक संख नामा आचार्य हुवा । ( तबसें) इस मतका सांख्यण साताप्त हुवा सांख्य परिव्राजक संन्यासियोंके लिंगका, आचारादिकका मूल, यह मरीचि हुवा । एक जैन मतके विगर सब मतोंकी जड, इसकू समजना चाहिये ॥
॥ अब जैन पंडित ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति लि० ॥ (जिस दिन) श्री ऋषभदेव स्वामीकू केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा । उसी वखत भरत राजाके, आयुधशालमें हजार देवा विष्टित चक्ररत्न उत्पन्न हुवा। दोनू तरफका वधाईदार साथमें आया। उन दोनुकू वधाई देके धर्मकू मोटा जानके, प्रथम केवल ज्ञानका उच्छव करके पीछे चक्ररत्नका उच्छव करा (औरभी) हजार हजार देवाधिष्ठित १३ रत्न उत्पन्न भया। इस १४ रनोंके
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