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मिति पोष वदि १० के दिन, विशाखा नक्षत्रे जन्म कल्याणक हुवा । उसी वखत ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिका महोच्छव कीया। पीछे ६४ इंद्र, मेरु पर्वतपर भगवानकों ले जायके, जन्म महोच्छव कीया । तिस पीछे अश्वसेन राजायें १० दिवसपर्यंत मोटो महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों, मनसा भोजन करायके सर्वके सन्मुख श्री पार्श्व कुमर नाम स्थापन कीया। नाम स्थापनाका यह हेतु है, कि भगवान जब गर्भ में आया, तब मातायें अंधारी रात्रीको पासमें सर्प जाता हुवा देखा, इससे माता पितायें विचारा कि ए गर्भका प्रभाव है। इस कारणसें पार्श्वनाथ नाम दिया । सर्पका लंछनयुक्त, नीलवर्ण, शरीरका प्रमाण ९ हाथ हुवा । ३ ज्ञान सहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे विवाह कीया । राज्यपद नहिं धारण करके, लोकांतिक देवताके वचनसें, मिति पोष वदि ११ के दिन, वणारसी नगरीमें, छठ तप करके, धातकी वृक्षके नीचे, ३०० पुरुषोंकेसाथ, दीक्षा ग्रहणकरी । उस वखत चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, धन्नाके घरे, परमान्न क्षीरसे हुवो। ८४ दिन छद्मस्थपणे विहार करके फिर वणारसी नगरीमें आये, वहां अट्ठम तपसहित, चैत्रवदि ४ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न भया । उस वखत, चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा, समोसरणमें, १२ परिषदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके चतुर्विध संघकी स्थापना करी। भगवान्के १६ हजार सर्व साधु भये । जिसमें, आर्यदिन्न प्रमुख १० गणधर
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