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माफ कराउंगा (तब) भगवान् श्री ऋषभदेवस्वामी कहने लगे (कि यह ) आहार, साधुवोंके लेने योग्य नहिं (तब) भरतजी मनमे उदास होके केनें लगे (कि) यह आहार किसकू देउं (तब) भगवाननें कहा, जो तेरेसें गुणोंमें अधिक होय, ऐसे वृद्धश्रावक साधर्मीयांकू भोजन करावे । तो तुजको पूर्ण लाभ होवे तब भरतजीनें बहुत गुणवान् श्रावकोंकू वो भोजनजिमाया (और) उन श्रावकोंकू ऐसा कह दीया (कि ) तुम सब जने मिलकर सदैव मेरे इहां भोजन कर लियां करौ । (औरभी ) जो खरच तुमारे चहीये (सो) मेरे भंडारसें लेलीयां करो ॥ (और) वाणिज्यादिक सर्व काम छोडके, स्वाध्याय करनेमें, पढानेमें, भगवान्को धरम प्रवर्तन करनेमें, सदाकाल सावधान रहो (और) मेरे महिलंकेपास रहते हुवे मेरेकूभि ऐसे वचन सुनाते रहो । (जितो भवान् बर्द्धते भयं । तसात् माहन माहन ) तब जो वृद्धश्रावक भरतजीके कहनेसें सब काम छोडके नि केवल धरमकार्य करणेमें उद्यमवंतभए ( तबसें ) जैनी पंडित, वृद्धश्रावकोंकी उत्पत्ति भई । श्री अनुयोगद्वारजी सूत्रभि, जैनी पंडित श्रावकोंका नाम, वुड्डसावया ऐसा लिखाहै, यह वृद्धश्रावक भरतजीके महिलोंकेपास बैठे हुवे (जितो भवान् ) इस पूर्वोक्त वचनळू सदाकाल उच्चारन कर्तेरहे । (और ) भरतजी तो सदा काल भोगविलासमें मग्न रहते थे ( तथापि ) वृद्धश्रावकोंका वचन सुनके, मनमें चितवन करने लगे । कि मुझकुं किसने जीताहै । तब सरन हुवा । कि मेरेकुं । क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायादिकसें, मोहराजा जीतरयाहै
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