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मस्तकपर त्रिपुंडाकारसें लंगायी (तबसें) त्रिपुंड लगाना सरू हुवा । (और जब ) भरतजीनें कैलास पर्वतके ऊपर, सिंहनिषद्या नामें मंदिर बनाया ( उसमें ) श्री ऋषभदेवस्वामीकी (और) आगे होनेवाले २३ तीर्थंकरोंकी, सर्व चौवीश प्रतिमा, अपना २ वर्ण प्रमाणमुजब, चारेइं दिशामें संस्थापन करी (और) दंड रत्नसें पर्वतकों ऐसें छीला (कि) जिस ऊपर कोई पुरुष पांवासें न चढ सके । ( उसमें ) एकेक जोजन ऊंचा ८ पगथिया ररका (इससें) कैलास पर्वतका, दूसरा नाम अष्टापद हुवा ॥ और तबसेंही कैलास, महादेवका पर्वत कहलाया ॥ मोटा जो देवसो महादेव, श्री ऋषभदेवस्वामी, जिसका निर्वाण स्थान कैलास हुवा ॥ ( पीछे ) श्री भरत चक्रवर्ति केवलज्ञान पायके मोक्ष गए (तब ) श्री भरतजीके पाटे, सूर्ययशा राजा भया । तिसकी औलाद सूर्यवंशी कहलाए। सूर्ययशाके पाटे महायशा राजा गद्दीपर बैठा ( ऐसें ) अतिबल, महाबल, तेजवीर्य, दंडवीर्य ( इत्यादि ) अनुक्रमसें अपनें २ पिताकी गद्दीपर, बैठे ( परंतु) भरतजीसें आधा राज्य ( अर्थात् ) भरत क्षेत्रका तीन खंडके भीतर २ राज्य रहा अंतमें ( भरतजीकी तरै ) आठ पाटतक तो, आरीसा महलमें, केवलग्यान पाय, दिक्षा लेके मोक्ष गए (इस पीछे ) दूसरा तीर्थकर, श्री अजितनाथ स्वामीका पिता, जितशत्रु राजातक असंख्य पाट हुए । जिन सबका अधिकार सिद्धांतरगंडिकासें जाण लैना ॥ इति ५५ बोल गर्भित श्री ऋषभ देवखामा देवस्वामी ( तथा ) पहला चक्रवर्ति भरतजीका अधिकार कहा ॥
मालना ॥ इति ५
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