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खरूप वर्णन कीया। तब कपिल बोला (कि ) साधू धर्म उत्तम है ( तो) तुमने ऐसा भेष काहे• धारणकरा । तब मरीचि बोला (कि ) साधु धर्म मेरेसें पल नही सका । इससे मैंने यह लिंग स्वमतिकल्पित धारण कीया है । (इस सेती) तुम भगवान्के पास जायके दीक्षा ग्रहण करो । तब कपिल राजपुत्र समवसरणकेभीतर गया ( वहां ) श्री ऋषभ देव स्वामीकों, छत्र चामरादि सिंहासन युक्त राज्यलीला भोगवता देखके, पीछा मरीचिकेपास आयके केनेलगा (कि) श्री ऋषभदेव स्वामी तो राज्यलीला सुख भोगवते हैं । इसवास्ते उसका धर्म तो मुजकू रुचे नही । अब तेरेपास कुछ धर्म है, या नहीं। तब मरीचिने जाना (कि) यह भारि कर्मा जीवहै । मेराही शिष्य होने योग्य है । इस लोभसें मरीचिने कहा वहांभी धर्म है । और मेरेपासभी देशे धर्म है । ( तव ) कपिल मरीचकेपास दीक्षा लेके शिष्य हुवा (शरिषाः शरिषेण रच्यते इति वचनात् ) ॥ यह सांख्य मतके प्रवर्तक, कपिल मुनिकि उत्पत्ति कही । ( उस्समय ) मरीचिके तथा कपिलकेपास कोईभी उसके धर्मसंबंधी पुस्तक नही था॥नि केवल जो कुछ आचार मरीचिने वताया उस प्रकारे कपिल कर्ता रहा। (और) मरीचिने, शिष्यके लोभसें मेरे पासभी किंचित् धर्म है (ऐसे) उत्सूत्र भाषणेसें एक कोटाकोटि सागरोपमलग जन्म मरण करके, अंतमे २४मा तीर्थकर श्री महावीर स्वामी हुवा उस मरीचिके काल करे पीछे, कपिल मरीचिके वताया यथार्थ ज्ञानशून्य आचारमें चलता रहा। उस कपिलमुनीके आसुरी नामे शिष्य हुवा। और भी बहोतसे शिष्य हुए
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