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कुझील - इन पांच निर्गन्य मुनियों के विवरण को, प्रायः उसी रूप में स्थान दिया है, जैसाकि दिगम्बर परम्परा के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं है। - इतना सब कुछ होते हुए भी स्व० श्री प्रेमीजी द्वारा जो सम्भावना प्रकट की गई है, उसके सम्बन्ध में प्रामाणिक निर्णय उसी समय लिया जा सकता है जब कि हमारे सामने यापनीय संघ की कोई पट्टावली अथवा एतद्विषयक कोई साहित्य हो। इस दृष्टि से भी यापनीय संघ के साहित्य की सम्मिलित रूपेण खोज करना अत्यावश्यक हो गया है।
४. यापनीय संघ द्वारा मान्य एकादशांगी, अंगबाह्य, पागम, यापनीयतंत्र, पट्टावलियां आदि प्रागमेतर साहित्य की वर्तमान में अनुपलब्धि के कारण प्राज यापनीय संघ की ठीक वही दशा हो रही है, जो दो दलों के खेल में गेंद की। एक प्रोर श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथ यापनीयों की उत्पत्ति दिगम्बर संघ से बताते हैं तो दूसरी पोर दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ श्वेताम्बरों से।
तीनों परम्पराओं के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा अनुमान किया जाता है कि यापनीय संघ भी अपने आप में पूर्ण, सुसंगठित एवं स्वतन्त्र धर्मसंघ था।
आचारांग द्वितीय श्रुत स्कन्ध के पांचवें अध्ययन के वस्त्रषणा तथा छठे अध्ययन के पात्रषणा विषयक उद्देशकों के साथ यापनीयों के उपलब्ध ग्रन्थ भगवती पाराधना और उस पर अपराजितसूरि की विजयोदया टीका के तुलनात्मक अध्ययन से विद्वान् यह अनुभव करेंगे कि यापनीय मुनियों का आचार सर्वथा आचारांग के निर्देशों के अनुसार ही था। __मैं विश्वास करता हूँ कि इन कतिपय तथ्यों पर विद्वान् चिन्तक निष्पक्ष दृष्टि से गवेषणा कर प्रकाश डालेंगे।
सम्पादन काल में वस्तुस्थिति के चित्रण में सजीवता लाने का प्रयास करते समय यदि कहीं साधुभाषा का अतिक्रमण हो गया हो तो वह मेरा दोष है। विद्वान् पाठक मेरे उस प्रमाद के लिये मुझे क्षमा करेंगे।
गजसिंह राठोड़, न्याय, व्याकरण-तीर्थ,
मुख्य सम्पादक
१ देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ६१५-६१६
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