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एक बड़े महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर मैं विचारकों का ध्यान दिलाना चाहता हूँ जिससे यह प्रमाणित होता है कि उमास्वाति जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य नहीं थे, उसी प्रकार यापनीय परम्परा के प्राचार्य भी नहीं थे। तत्त्वार्थाधिगम के अष्टम अध्याय के अन्तिम सूत्र - "सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्" - की व्याख्या करते हुए प्राचार्य सिद्धसेन गणि ने अपनी तत्त्वार्थ टीका में लिखा है :___“कर्मप्रकृतिग्रन्थानुसारिणस्तु द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतीः पुण्याः कथयन्ति ।...... आसां च मध्ये सम्यक्त्वहास्यरति पुरुषवेदा न सन्त्येवेति कोऽभिप्रायो भाष्यकृतः को वा कर्मप्रकृतिग्रन्थप्रणयिनामिति सम्प्रदायविच्छेदान्मया तावन्न व्यज्ञायीति ।" . अर्थात् "कर्म-प्रकृति ग्रन्थ का अनुसरण करने वाले जिन ४२ प्रकृतियों को पुण्यरूप मानते हैं, उनमें सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद का उल्लेख नहीं है । सम्प्रदाय के लुप्त हो जाने के कारण मैं नहीं कह सकता कि इस प्रकार के भिन्न कथन में भाष्यकार का अभिप्राय क्या था और कर्मप्रकृतिग्रन्थकारों का क्या।"
सिद्धसेन के उपर्युक्त कथन में 'सम्प्रदायविच्छेदात्' पद विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । सिद्धसेन के इस कथन से यही प्रकट होता है कि उमास्वाति जिस सम्प्रदाय, जिस उच्चनागरी शाखा के महाश्रमण थे, वह सम्प्रदाय सिद्धसेन के समय से पूर्व ही नष्ट हो चुका था। उस सम्प्रदाय की मान्यताओं का विश्लेषणविशद व्याख्यान करने वाला कोई उनके समय में प्रवशिष्ट नहीं रहा था।
___ यदि वाचक उमास्वाति यापनीय संघ के होते तो सिद्धसेन सम्प्रदाय-विच्छेद की बात कदापि नहीं लिखते । क्योंकि उनसे लगभग ७००-८०० वर्ष पश्चात् तक यापनीय संघ की विद्यमानता अनेक प्रमाणों से और स्वयं प्रेमीजी के अभिमत से प्रमाणित होती है। प्रेमीजी की मान्यतानुसार सिद्धसेन गरिएका समय विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी' और यापनीयों की विद्यमानता का समय विक्रम की १५वीं-१६वीं शताब्दी है।
उमास्वाति की तरह यापनीय प्राचार्य अपराजित ने भी भगवती पाराधना की टीका में अपने – “सद्वेद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुवेदाः शुभे नाम गोत्रे शुभं चायुः पुण्यं, एतेभ्योऽन्यानि पापानि ।"3 - इस कथन द्वारा सम्यक्त्व, रति, हास्य और पुरुषवेद को पुण्य रूप माना है - यदि इस आधार पर वाचक उमास्वाति को यापनीय मान लिया जाय तो फिर सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद देवनंदी को दिगंबर परम्परा के प्राचार्य मानने में बाधा उपस्थित की जायगी। क्योंकि पूज्यपाद ने भी अपनी 'सर्वार्थसिद्धि' में, तथासम्भावित यापनीय उमास्वाति के 'तत्त्वार्थाधिगम स्वोपज्ञभाष्य' में वर्णित पुलाक, बकुश, कुशील, प्रतिसेवनाकुशील और कषाय
. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ५४१ २ वही, पृ० ५७ ३ देखिये - तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य - १/४८, ६/४६ । सर्वार्थसिद्धि - ६/४७
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