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कोभीषणिगोत्रीय, उच्चनागर शाखा के वाचक उमास्वाति ने पाटलीपुत्र में विचरण करते समय लोगों को दुःखों से त्रस्त एवं दुरागमों से हतबुद्धि देख गुरु परम्परा से प्राप्त अर्हद्वचनों को समीचीनतया अवधारण कर अनुकम्पापूर्वक इस तत्त्वार्थाधिगम नामक स्पष्ट शास्त्र की रचना की। जो व्यक्ति इस तत्त्वार्थाधिगम को हृदयंगम कर इराके अनुसार आचरण करेगा, वह शीघ्र ही अव्याबाध सुख, मोक्ष को प्राप्त करेगा।
__उच्चनागर शाखा श्वेताम्बर संघ के प्राचार्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध से प्रचलित कोटिक गण की एक प्रतिप्रसिद्ध शाखा थी, यह तो अब सर्वसम्मत तथ्य के रूप में सिद्ध हो चुका है। इसके साथ ही साथ वाचकमुख्य, महावाचक, क्षमण और वाचक शब्द श्वेताम्बर परम्परा के पूर्वधर प्राचार्यों के लिये प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों में प्रयुक्त किये हए मिलते हैं। दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों के लिये इन शब्दों का प्रयोग कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। धवला में प्रार्य मंगू और आर्य नागहस्ती के लिये 'खमासमण' और महावाचक शब्दों का प्रयोग किया गया है। वे दोनों प्राचार्य भी श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्य प्रतीत होते हैं क्योंकि दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय में खोजने पर भी किसी पट्टावली अथवा गन्थ में ये दो नाम नहीं मिलते।
उमास्वाति ने अपने शिक्षा गुरु प्राचार्य मूल के लिये 'वाचकाचार्य' तथा प्रगुरु मुण्डपाद क्षमण के लिये महावाचक शब्द का प्रयोग किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि वाचक उमास्वाति तथा उनके शिक्षा-गुरु वाचकाचार्य मूल एक पूर्व के ज्ञाता थे और वाचकाचार्य मूल के गुरु महावाचक मुण्डपाद एक से अधिक पूर्वो के ज्ञाता। धवलाकार द्वारा एकाधिक पूर्व के ज्ञाता आर्य मंसू (मंग) के लिये प्रयुक्त महावाचक विशेषण से भी मेरे इस अनुमान की पुष्टि होती है।
इन सब उल्लेखो पर तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर यह तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि उमास्वाति दिगम्बर प्राचार्य नहीं थे। स्वर्गीय प्रेमीजी ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य सूत्र पाठ में - 'एकादशजिने'२ 'दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः' और 'पुलाकबकुश' 'संयमश्रुत' आदि सूत्रों को दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं से विपरीत, एवं श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य में उल्लिखित ७ बातों को श्वेताम्बर परम्परा की मान्यताओं के प्रतिकूल बता कर .(क) महावाचयाणमज्जमखुसमणाणमुवदेसेण लोगे पुष्णे प्राउअसमं करेदि ।
[षटखंडागम, भा० १६, पृ० ५१८] (ख) कम्मट्ठिदित्ति परिणयोगदारम्हि भण्णमाणे बे उवएसा होति....प्रज्जणगहत्यि स्खमा
समणा भणंति । भज्ज मंखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदि संचिद संतकम्मपरूवरणा कम्मट्ठिदि परूवणेति भणंति
[वही] २ तत्वार्थाधिगम सूत्र, म० ६, 3 वही म० ४ ४ वही. अ०६
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