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पर्याप्त अंश दक्षिणी लिपियों में कहीं न कहीं अवश्य अन्धकार में पड़ा हुआ है। प्राशा है शोधप्रिय विद्वान् इस दिशा में प्रयास करेंगे तो अवश्य सफलता प्राप्त होगी।
३. एकादशांगी की विद्यमानता अथवा विच्छेद के सम्बन्ध में भी निष्पक्ष दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है। जहां एक ओर श्वेताम्बर परम्परा की यह दृढ़ मान्यता एवं प्रास्था है कि एकादशांगी का कतिपय अंशों में ह्रास तो हुआ है पर वह विच्छिन्न नहीं हुई है, तो दूसरी प्र; दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में इस प्रकार की मान्यता अभिव्यक्त की गई है कि वीर नि. सं० ६८३ में अंतिम आचारांगधर लोहाचार्य के स्वर्गस्थ होने के साथ ही एकादशांगी का विच्छेद हो गया। इन दोनों परम्पराओं से भिन्न जनसंघ की तीसरी परम्परा - यापनीय संघ के 'ग्रन्थ भगवती प्राराधना' एवं 'विजयोदया टीका' में एकादशांगी की विद्यमानता के स्पष्ट उल्लेख आज भी उपलब्ध हैं। ऐसी स्थिति में एकादशांगी की विद्यमानता विषयक श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता का पक्ष भारी पड़ता है।
तत्त्वार्थ-सूत्र के प्रणेता उच्चनागर शाखोद्भव वाचक' उमास्वाति (स्व० प्रेमीजी की मान्यतानुसार वीर नि० को दशवीं शताब्दी) ने इस सूत्र पर निर्मित स्वोपज्ञ भाष्य की प्रशस्ति में एकादशांगी की विद्यमानता का स्पष्ट उल्लेख किया है :
वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशांगविदः ॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ।।२।। न्यग्रोषिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे-कुसुमनाम्नि । कौमीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ।।३।। प्रहंद्वचनं गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखातं च दुरागमविहतमति लोकमवलोक्य ॥४॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकंपया हन्धम् । तत्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ।। यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्याबाष सुखाख्यं, प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥६॥
अर्थात् - यशस्वी वाचकश्रेष्ठ शिवश्री के प्रशिष्य, एकादशांगधर घोषनन्दिक्षमण के शिष्य, वाचना (विद्या) दान की दृष्टि से महावाचक मुण्डपादक्षमण के प्रशिष्य तथा कीर्तिशाली मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य, पिता स्वाति एवं माता वात्सी के पुत्र, न्यग्रोधिका में उत्पन्न (जन्म ग्रहण करने वाले) 'वाचको हि पूर्व वित्". [तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य की सिङसेनीया टीका, म०६, सूत्र ]
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