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पण्डितमरण का वरण करने वाले आर्य वज्रस्वामी आदि के दशपूर्वधर पूर्वाचार्यों के लिए इस प्रकार की बात कहना विश्वबन्धु महावीर के अनुयायियों के लिए किसी भी दशा में शोभाजनक नहीं हो सकता।
. भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के इस पावन-प्रसंग पर इन सब थोथी बातों को गहन गर्त में फेंक कर वास्तविक तथ्यों की खोज करना प्रत्येक जैन विद्वान् का पुनीत कर्तव्य हो जाता है। तिलोयपण्णत्तीकार और पुन्नाट संघीय विद्वान् प्राचार्य जिनसेन से लेकर पश्चाद्वर्ती सभी बड़े-बड़े दिगम्बराचार्यों ने जम्बूस्वामी के पश्चात विष्णु और भद्रबाह के पश्चात् विशाखाचार्य से प्राचार्यों की पट्टावली प्रारम्भ की है। दिगम्बर परम्परा के वीरसेन, इन्द्रनन्दी, जम्बूदीव प्रज्ञप्तिकार प्राचार्यों ने गौतम से लेकर अंतिम अंगधर लोहार्य तक जो प्राचार्यों की नामावली दी है, उसे आचार्य परम्परा की पट्टावली के नाम से अभिहित न कर, उसका श्रतावतार की परम्परा के नाम से उल्लेख किया है। इस पर प्रश्न उत्पल होता है कि क्या प्राचार्यों की श्रुतावतार परम्परा और पट्टधर प्राचार्य-परम्परा परस्पर दो भिन्न-भिन्न परम्पराएँ हैं। यदि भिन्न हैं तो पट्टानक्रम से प्राचार्य परम्परा की पट्टावली कौन-सी है और कहां है ? पट्टानुक्रम की अन्य पट्टावली के अभाव में यही मानना श्रेयस्कर है कि यह श्रुतावतार परम्परा की नागवली ही प्राचार्य परम्परा की पट्टावली है। जहां तक मुझे याद पड़ता है मेरी जिज्ञासा के उत्तर में दिगम्बर परम्परा के एक माने हुए विद्वान् ने इसे श्रुतावतार पट्टावली ही बताया था। पर वस्तुतः यह श्रुतावतार पट्टावली ही पट्टधर पट्टावली होनी चाहिए । अन्यथा अनेक इस प्रकार की बाधाएँ उपस्थित होंगी, जिनका निराकरण किसी प्रकार संभव नहीं।
श्वेताम्बर परम्परा की दो मुख्य स्थविरावलियां हैं - एक तो कल्पसूत्र के अंत में दी हई स्थविरावली और दूसरी नंदीसूत्र के प्रारम्भिक मंगल पाठ में दी हुई वाचक-परम्परा की पट्टावली। मथुरा के कंकाली टीले से निकले प्रायागपट्टों, मूर्तियों, स्तम्भों आदि पर उटंकित शिलालेखों से कल्पस्थविरावली और नन्दीस्थविरावली की प्राचीनता और प्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है। इसी प्रकार के प्रामाणिक उल्लेखों की खोज चतुर्दश पूर्वधर आचार्य विष्णु से लेकर अंतिम अंगधर लोहाचार्य के सम्बन्ध में करने की महती आवश्यकता है। श्रवणवेलगोल, पार्श्वनाथ वसति के कुछ शिलालेखों में विष्णु आदि प्राचार्यों के उल्लेख हैं पर वह अपूर्ण, कतिपय अंशों में परस्पर विरोधी और पर्याप्त पश्चाद्वर्ती काल के हैं।
___ इन सब विवादास्पद प्रश्नों का कोई सर्वमान्य हल माज उपलब्ध समस्त जैन वाङमय में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि यापनीय संघ के यापनीय - तन्त्र तथा साहित्य की सामूहिक रूप से खोज की जाय और उस संघ के प्राचार्यों की कोई पट्टावली खोज निकाली जाय तो उस निष्पक्ष साक्ष्य के आधार पर इस प्रकार की अनेक समस्याओं को हल करने में बड़ी सहायता मिल सकती है। ऐसा लगता है कि यापनीय संघ का जो विपुल एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य था, उसका
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