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निष्पक्ष दृष्टि से तुलनात्मक एवं तलस्पर्शी अध्ययन करें, तभी वह इतिहास प्रामाणिक, सर्वांगसुन्दर एवं समष्टि के लिये उपयोगी तथा उपादेय होगा। भारतीय इतिहास पर नवीन शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखने वाले विद्वान् लेखकों के लिये तो इस प्रक्रिया को अपनाना परमावश्यक हो जाता है। इन तीनों परम्पराओं के ऐतिहासिक स्रोतों का इतिहासविदों द्वारा समान रूप से उपयोग न किये जाने के कारण अाज जितने भारतीय इतिहास उपलब्ध हैं, उनमें से अधिकांश को सर्वांगपूर्ण इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
२. प्राचार्यश्री ने जिस प्रकार जैन काल-गणना को ६० वर्ष पीछे की ओर धकेलने वाली शताब्दियों पुरानी एक भ्रांत मान्यता का सदा के लिए अंत किया है, उसी प्रकार के निष्पक्ष एवं ठोस प्रमाणों द्वारा दो-तीन बड़ी महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान परमावश्यक है। समस्याएं बड़ी ही जटिल हैं, अतः उनको सुलझाने के लिए आज स्व० श्री नाथूराम प्रेमी के समान शोधप्रिय, अध्ययनशील एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त निष्पक्ष चिन्तकों की तथा सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। पीढ़ियों से वैदिक परम्परा के गहरे रंग में रंगे हए वैदिक परंपरा के उद्भट प्राचार्य गौतम आदि ११ गणधर वीर प्रभु की वाणी द्वारा सत्य का बोध होते ही तत्काल निःसंकोच अपनी परम्परागत प्रास्थानों-मान्यताओं का पूर्णतः परित्याग कर सत्य को आत्मसात् कर लेते हैं, तो सहस्राब्दियों से उन्हीं के अन्यायी कहलाने वाले विद्वानों के लिए सत्य की खोज में निष्पक्ष दृष्टि से सामूहिक प्रयास करना कोई कठिन कार्य नहीं।
पहली और सबसे जटिल समस्या हमारे समक्ष यह है कि प्रार्य जम्बू के पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों की नामावली में भेद क्यों है ? चार प्राचार्यों के पश्चात् पांचवें श्रुतकेवली भद्रबाह का नाम दोनों परंपरानों में पूनः किस कारण सर्वमान्य हो गया? भद्रबाह के पश्चात् पुनः नदी की दो बिछुडी हुई, कभी न मिलने वाली दो भिन्न धाराओं की तरह दो पृथक धाराएं किस कारण चल पड़ीं ? वास्तव में अब एक दूसरे पर दोषारोपण करने वाली ये निस्सार बातें सुनने के लिए कोई तैयार नहीं कि
"अमुक परम्परा के साधु नग्न रहते थे, पोथी-पन्ना उनके पास था नहीं, इसलिए वे अपनी परम्परा के इतिहास को सुरक्षित नहीं रख सकेकालान्तर में जैसा मन में पाया वैसा लिख दिया" अथवा "अमुक परंपरा के साधु दुष्काली में ढीले पड़ गये, अद्धंफालक-डंडा-पात्र धारण कर गृहस्थों से भीख मांग कर उनके घरों में बैठकर खाने लग गये। फिर तो शिथिलाचार में मजा आ गया, गुरु ने ज्यादा कहा तो उनकी खोपड़ी पर
लट्ठ का प्रहार कर गुरुहत्या कर दी।" कोटि कोटि कांचन मद्रामों और कनकलता सी कामिनी के प्रलोभन से तिल मात्र भी नहीं डिगने वाले, भीषण दुष्काल के समय विद्यापिण्ड के उपभोग की अपेक्षा मृत्यु को श्रेयस्कर समझने वाले ५०० शिष्यों के साथ संथारा एवं समाधिपूर्वक
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