________________
डाला है कि अब इस सम्बन्ध में मेरे जैसे व्यक्ति के लिये एक शब्द भी कहने अथवा लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती । तथापि जैन इतिहास के इन दो बड़े ग्रन्थों के सम्पादनकाल में सनातन, जैन और बौद्ध, इन भारत की तीन महान् संस्कृतियों के प्रार्ष एवं प्रातर साहित्य तथा भारत के सार्वभौम इतिहास ग्रन्थों का अध्ययन तथा तुलनात्मक चिन्तन-मनन करते समय मुझे जो अनुभूतियां हुई हैं उन्हें केवल अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं के रूप में यहां इस दृष्टि से प्रस्तुत करना चाहता हूँ कि संभवतः वे समष्टि के लिये न सही, कतिपय नवीन विचारकों के लिये उपयोगी सिद्ध हों ।
१. हमारा देश आर्यावर्त विगत अचिन्त्य लम्बे अतीत से आध्यात्मिक एवं सार्वजनीन हित साधक ऐहिक ज्ञान का केन्द्र रहा है। एक ही धरातल पर फलीफूली सनातन, जैन एवं बौद्ध ग्रादि संस्कृतियों के धर्म एवं इतर विषयों के ग्रन्थों में इन तीनों संस्कृतियों के अनेक तथ्य संपृक्त रूप में निहित हैं। जहां तक इतिहास जैसे जटिल एवं विस्तीर्ण विषय का प्रश्न है, कतिपय अंशों में इन तीनों संस्कृतियों का साहित्य परस्पर एक दूसरे की कमियों का पूरक है । उदाहरण स्वरूप शिशुनागवंश और नंदवंश का पूरा एवं वास्तविक इतिहास इन तीनों परम्पराओं के ग्रन्थों में वरित एतद्विषयक उल्लेखों के तुलनात्मक अध्ययन और उनमें से सार भूत पूरक तथ्यों को ग्रहण करने से ही पूरा होता है। इन तीनों में से किसी एक को ही आधार मान लेने पर भारत के इन दो प्रमुख राजवंशों का इतिहास अधूरा ही नहीं अपितु पर्याप्त रूपेरण भ्रामक ही रह जाता है ।
इसी प्रकार हमारे देश आर्यावर्त का नाम भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर 'भारत' पड़ा, इस तथ्य की निष्पक्ष एवं सर्वमान्य साक्षी सनातन परम्परा के पुराणों से ही उपलब्ध होती है ।
वाराणसी पर इक्ष्वाकु - राजवंश का कब से किस समय तक राज्य रहा और भगवान् पार्श्वनाथ के पिता महाराज अश्वसेन के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् वाराणसी पर किस प्रकार शिशुनागवंश का आधिपत्य हुआ, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख जैन परम्परा के ग्रन्थों में नहीं है । सनातन परम्परा के पुराणों में इम विषय के स्रोत बीज रूप में उपलब्ध होते हैं, जिनसे एतद्विषयक प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने में बड़ी सहायता मिलती है ।
इसी प्रकार जहां तक अहिंसा एवं अपरिग्रह जैसे विश्वकल्याण-मूलक महान् सिद्धान्तों का प्रश्न है, महाभारत के शान्तिपर्व में वरिणत अहिंसा विषयक उपरिचर वसु और तुलाधार तथा अपरिग्रह विषयक उञ्छवृत्ति के आख्यान इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि जैन परम्परा की तरह सनातन परम्परा में भी अहिंसा एवं अपरिग्रह आदि महान् सिद्धान्तों का बहुत बड़ा महत्व रहा है।
इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में धर्म, संस्कृति अथवा किसी पुरातन घटनाचक्र का इतिहास लिखते समय विद्वान् लेखक प्रमुखत: इन तीनों संस्कृतियों के ग्रन्थों का
'
)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org