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शान्त हुई । सोचा इतिहास की प्रतिस्थूल परतों के नीचे न मालूम कितने असंख्य मुझ से प्रभागों के इतिवृत्त दबे पड़े होंगे, जो अमोघ वीतराग-वारणी की वीचियों से शोभायमान सुधासागर के तट पर पहुँच कर भी निपट प्यासे ही रह गये ।
मैं अपने अध्यापक पं० हीरालालजी शास्त्री ( ब्यावर ) के प्रति भी श्रद्धासिक्त आभार प्रदर्शित करता हूँ । पंडित सा० ने दिगम्बर परम्परा के हस्तलिखित एवं मुद्रित अनेक ग्रन्थ प्रदान करने के साथ-साथ मार्गदर्शन एवं दिगम्बर परम्परा के विद्वानों से परिचय करवाया, जिससे मुझे अपने कार्य में बड़ी सफलता मिली ।
मैं हैरत में है कि श्रीमान् दरबारीलालजी कोठिया के प्रति किन शब्दों में प्रभार प्रकट करूं । पं० हीरालालजी और कोठियाजी में मैंने एक अनूठी आत्मीयता देखी । "नन्दी संघ प्राकृतपट्टावली" में वरिणत अंगधारी प्राचार्यों के विवादास्पद काल, नाम प्रादि के सम्बन्ध मे मुझे यथाशक्य अधिकाधिक सामग्री एकत्रित करनी थी । श्री कोठियाजी ने स्व० श्री नेमिचन्दजी, ज्योतिषाचार्य द्वारा लिखित निर्वाणोत्तर काल की प्राचार्य परम्परा विषयक ग्रन्थ की पाण्डुलिपि और दिगम्बर परम्परा की १७ पट्टावलियां मुझे प्रदान कीं । मुद्रणाधीन पुस्तक की पाण्डुलिपि उसी विषय के एक अपरिचित शोधार्थी को दिखा देने की उदारता कोठियाजी जैसे असाधारण सौजन्य के धनी ही कर सकते हैं । कोठियाज़ी ने मुझे एक अनन्य ग्रात्मीय तुल्य सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान कीं । प्रस्तुत ग्रन्थमाला के तृतीय एवं चतुर्थ भांग के लिये उपयोगी उन १७ पट्टावलियों की मैंने प्रतिलिपि कर ली पर २५०० पृष्ठ की पाण्डुलिपि में से मैंने केवल ६०-७० पृष्ठ ही पढ़े । स्वर्गीय पं० नेमिचन्दजी ने निर्वाणोत्तर काल की प्राचार्य परम्परा का बहुमूल्य पानीदार शीशे में क्रमश: प्रतिबिम्बित होने वाले मनमोहक दृश्यों की तरह सजीव चित्रण किया था । पुस्तक बड़ी रोचक थी किन्तु मैं जिस वस्तु की खोज में था, वह उसमें नहीं थी अतः पाण्डुलिपि का जितना भाग मेरे पास श्राया था, न उसे ही पूरा पढ़ा और न अवशिष्ट अंश कोठियाजी के प्राग्रह के उपरान्त भी लिया ही ।
मैं जैन परम्परा के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् श्री अगरचन्दजी नाहटा का भी बड़ा प्रभारी हूँ कि उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम में से ३ दिन का समय निकाल कर प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि के प्रारूप को सुना और अनेक उपयोगी सुझाव दिये ।
मैं अपने सहपाठी श्रेष्ठिवर श्री श्रानन्दराज मेहता, न्याय व्याकरणतीर्थं एवं बालसखां श्री प्रेमराज बोगावत, व्याकररणतीर्थ के सौहार्द को कभी नहीं भुला सकता। मेरे इन दोनों मित्रों ने ठंडी, मीठी और उत्साहवर्द्धक वाक्चातुरी से समय २ पर मेरा उत्साह बढ़ाकर मुझे अकर्मण्य होने से बचाया ।
प्रस्तुत ग्रन्थ और इसके विद्वत्तापूर्ण प्राक्कथन में श्रद्धेय माचार्यश्री ने वीर निर्वारण पश्चात् १००० वर्ष के जैन इतिहास पर इतना विशद रूप से प्रकाश
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