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सम्पादकीय प्रातः स्मरणीय आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी महाराज की स्वनामधन्य एवं सुविख्यात सम्प्रदाय के यशस्वी विद्वान् आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब द्वारा लिखित - "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" नामक ग्रन्थमाला के प्रथम भाग की तरह द्वितीयं भाग के सम्पादक मण्डल में भी मेरा नाम सम्मिलित कर मुझे जो सम्मान प्रदान किया गया है, उसके लिये मैं प्राचार्य श्री के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है। इस युग के उच्च कोटि के विद्वान; प्रमुख इतिहासज्ञ एवं आगमनिष्णात प्राचार्य की कृति के सम्पादन में अन्य किसी व्यक्ति को वस्तुतः विशेष श्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती। सम्पादकमण्डल में पांच लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों को विद्यमानता में मेरा श्रम कितना स्वल्प रहा होगा, इसका पाठक सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
इतना सब कुछ होते हुए भी वर्तमान युग के अकारणकरूणाकर महर्षि ने असीम अनुग्रह कर मुझ जैसे अकिंचन व्यक्ति को इस परम महत्वपूर्ण ग्रन्थ के सम्पादन का कार्य सौंपा, तो मेरा पूनीत कर्तव्य हो गया कि मैं पूर्ण निष्ठा के साथ अपने सामर्थ्यानुसार पूरी शक्ति लगा कर इस ग्रन्थरत्न को अधिकाधिक, सर्वांग सुन्दर, सर्व साधारण के लिये सुगम और शोधकर्ताओं के लिये सम्पादेय बनाने का.प्रयास करू। इस सब के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुरूप ही अध्ययन की प्रावश्यकता थी, जिसका मुझ में नितान्त अभाव था। लगभग ३५ वर्ष पहले, विद्यार्थी जीवन में किये गये कुछ प्रागमिक अध्ययन का जो धुंधला रेखाचित्र स्मृति पटल पर अंकित था, वह प्रस्तुत ग्रन्थमाला के प्रथम पुष्प के सम्पादनकाल में थोड़ा उभर चुका था। उसी के बल पर सम्पादन एवं प्रगाढ़ प्रसुप्त स्वान्तःकरण के जागरण - इन दोनों ही कार्यों के लिये समान रूप से परमोपयोगी पागम तथा. प्रागमेतर साहित्य के अध्ययन का क्रम बढ़ाया। मैं कृतज्ञ है। प्राचार्य श्री विनय चन्द्र ज्ञानभण्डार के भूतपूर्व मंत्री स्व. श्री सोहनमलजी कोठारी, वर्तमान अध्यक्ष श्री श्रीचन्दजी गोलेछा और पुस्तकालयाध्यक्ष श्री मोतीलालजी गांधी का, जिन्होंने मुझे विशाल ज्ञानभण्डार के उपयोग को पूर्ण सुविधा प्रदान करने के साथ-साथ आवश्यकतानुसार मांग करते ही तत्काल सैकड़ों सन्दर्भ ग्रन्थ उपलब्ध करवाये।
___ इस अध्ययन से प्रत्यक्ष-परोक्ष अनेक लाभ हए । सबसे बड़ा लाभ तो यह हा कि प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राचार्य श्री द्वारा जिन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रमाण पुरस्सर प्रतिपादन किया गया था, उन्हें आगमिक, आर्ष, प्राप्त एवं प्राचीन मूल ग्रन्थों के एकाधिक उद्धरणों को आवश्यकतानुसार टिप्परण अथवा मूल में देकर
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