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[ जैनधर्म-मीमांसा
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क्योंकि मुनि अपने निमित्त कुछ भी नहीं कराता ।
उत्तर--' अपने उद्देश्य से नहीं बना ', सिर्फ इसीलिये उसके पाप से कोई नहीं छूट जाता, अन्यथा बाजार में जो चीजें तैयार मिलती हैं वे सब निरुद्दिष्ट कहलायेंगी । तब तो मांसमक्षी को भी पशुवध का दोष न लगेगा । यदि कहा जाय कि जो लोग माँसभक्षण करते हैं उन सबका उद्देश करके पशुवध किया जाता है इसलिये पशुवध का दोष उन सबको लगता है, तो इसी तरह जो लोग अन्न खाते हैं उन सबके ऊपर खेती करने का दोष लगता है, भले ही फिर वह अन्न भिक्षा द्वारा प्राप्त किया जाय । प्राणवारण के लिये अन्न खाना अनिवार्य है, इसलिये खेती करना भी अनिवार्य
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है । जो अन्न खाता है वह खेती की जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है ? यदि अन्न खाना पाप नहीं है तो खेती करना भी पाप नहीं है । हां, उसमें यथाशक्ति यत्नाचार करना चाहिये | इसलिये अगर आवश्यकता हो तो मुनि भी कृषि करे तो इसमें मुनि का भंग नहीं हो सकता ।
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३ - प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने का अधिकार हैं । अगर हम दूसरे के प्राण लें तो यह अन्याय होगा । परन्तु प्रकृति की गति ऐसी है कि एक जीव के वध हुए बिना दूसरा रह नहीं सकता | इसलिये कुछ हिंसाओं को अहिंसारूप मानना पड़ता है । प्रकृति बलवान की रक्षा के लिये निर्बलों की बलि लेती है । धर्म में भी कुछ परिवर्तन के साथ इसी नियम का पालन करना पड़ता है 1 प्रकृति की नीति में बल शब्द का अर्थ पशुबल या जीवनोपयोगी बल है जबकि धार्मिक नीति में बल-शब्द का अर्थ चैतन्यवल,
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