________________
अपरिग्रह
[१३५ की आवश्यकताएँ थोडी थीं । तब परिग्रह की जरूरत ही क्या थी ? तब खाने के लिये उसे मन चाहे फल मिलते थे, पत्र और पुष्प उसके शृंगार थे, बम्बूल आदि की फली तथा बाँसुरी वगैरह उसके बादित्र थे, बल्कल के वस्त्र थे, पर्वत की कन्दराएँ
और वृक्षों की खोहें उसके मकान थे, अनेक वृक्षों का मादक-रस पीकर वह मद्य सेवन करता था । जब इस तरह चैन से गुजरती थी तब वह संग्रह करने के झगड़े में क्यों पड़ता ! परन्तु इस शान्ति का भी अन्त आया । जन संख्या बढ़ने लगी, रुचि और बुद्धि का भी विकास हुआ । अब कृत्रिम वस्त्र, कृत्रिम गृह आदि की रचना हुई । इस प्रकार से समाज में अत्यन्त क्रान्तिकारी युगान्तर उपस्थित हुआ । पहिले तो प्राकृतिक सम्पत्ति के हिस्सा बाँट से ही काम चल गया परन्तु पीछे और भी अनेक विधि-विधानों की आवश्यकता हुई । अब मनुष्य प्राकृतिक सम्पत्ति से ही गुज़र न कर सका, उसे परिश्रम भी करना पड़ा । इधर आवश्यकताएँ यहाँ तक बढ़ी और इतने तरह की बढ़ी कि एक मनुष्य से अपनी सारी आवश्यकताएँ पूरी न हो सकी । इसलिये कार्य का विभाग कर दिया गया । इस प्रकार मनुष्य पूरा सामाजिक प्राणी बन गया ।
__परन्तु सब मनुष्यों की योग्यता और रुचि बराबर नहीं थी। कोई परिश्रमी थे, कोई स्वभाव से कुछ आरामतलब । कोई बुद्धिमान् थे, कोई साधारण । जो परिश्रमी थे, बलवान थे, बुद्धिमान् थे, वे अधिक और असाधारण काम कर सकते थे, इसलिये यह स्वाभाविक पा कि वे अपने कार्य का अधिक मूल्य माँगें आर यह उचित भी था। इस प्रकार के अधिक मूल्य चुकाने के दो ही उपाय ये-एक