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अपरिग्रह]
[१३७ मूल्य की सेवा की है वह दूसरों से [अर्थात समाज से अधिक सेवा लेले। परन्तु उसे दूसरों से सेवा लेने का अधिकार था, न कि उनकी जीवन निर्वाह की सामग्री को छीनने का या दबा लेने का।।
जिन लोगों ने अधिक सेवा की, उनका यह कहना था कि हमने अधिक सेवा की है, इसके बदले में हमें कुछ प्रमाण-पत्र तो मिलना चाहिये, जिसको देकर हम समाज के किसी सदस्य से इच्छानुसार उतने मूल्य की सेवा ले सकें । समाज ने कहा-अच्छा प्रमाण-पत्र के रूप में तुम अपने पास अधिक सामग्री रख लो, जो कोई तुम्हारी सेवा करे उसको तुम यह दे देना । इस प्रकार समाज ने जो सामग्री दी थी, वह सिर्फ इसलिये कि वह अपनी सेवा के बदले में सेवा ले सके, न कि इसलिये कि वह सदा के लिये उस सामग्री को रखले, भले ही उसके बिना दूसरे भूखे मरते रहें। यह तो एक प्रकार से विश्वासघात और हिंसा है।
शंका-जिस जमाने में सम्पत्ति का संग्रह अन्न, चन, गाय, भैंस, जमीन आदि में किया जाता था उस ज़माने में संग्रह करनेवाला अवश्य पापी था क्योंकि वह दूसरों की जीवन-निर्वाह सामग्री लेकर लौटाने की कोशिश नहीं करता था, जिससे दूसरे भूखों मरते थे । परन्तु जब धन का संग्रह चाँदी, सोना, हीरा आदि में होने लगा, या इंडियों, नोटों में होने लगा तब कोई संग्रह करे तो क्या हानि भी ! सोना, चाँदी, नोद आदि तो खाने-पीने की चीज़ नहीं है इसलिये उनका कोई कितना भी संग्रह करले, उससे किसी का क्या नुकसान है ! .