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मुनिसंस्था के नियम ]
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जुलते हैं । और इन्हीं के शब्द आचार्य अकलङ्क देव ने भी ज्यों
के त्यों उद्धृत किये हैं"भावलिंग की
अपेक्षा से पाँचों ही निर्भय होते हैं, द्रव्य
उनमें भेद है ।
लिंग की अपेक्षा से इस प्रकार दोनों सम्प्रदारों में नियत बेन को कोई महत्व नहीं है। दोनों ही सम्प्रदाय, वेष का साबुता के साथ कोई घनिष्ट सम्बन्ध नहीं बताते । यद्यपि पीछे से दुराग्रहद्रा वेष की कट्टरता भी आ गई है, परन्तु इस कतारूपी धूलि के नीचे उदारता की चमक बिलकुल साफ मान होती है | दिगम्बराचार्य श्री कुंदकुंद इसीलिये कहते हैंI
"भाव ही वास्तव लिंग है, द्रव्य-लिंग वास्तविक लिंग नहीं है, क्योंकि गुण और दोपों का कारण नाव ही हैं ।'
है कि जहाँ समभाव है
वहीं साधुता
"
कहने का मत हैं, फिर भले ही वह नम रहता हो या कपड़े पहनता हो, जेन वेष में रहता हो वा अन्य किसी वेष में, साधु का वेष रखता हो या गृहस्थ का । उणध्याय श्री यशोविजय ! का कहना इस विषय में बहुत ही ठीक है
* भावलिंगं प्रपंच निवलिपिनो भवन्ति द्रव्य किं प्रतत्यि भाज्याः सर्वार्थसिध्दि ९-४७ राजार्तिक ९-४७-४ |
दवा च जाप परमत्थं । भावी कारणभूदो
भावीय पदम गुणदोसाणं जिणा विति भावात
+ अन्यलिंगादि सन्दान समतंत्र रित्रय फलप्राप्तेर्यया स्याद्वा जैनता । अध्यानसार मताधिकार ५०