________________
२५२]
(जैनधर्म-मीमांसा मार्दव और मार्दवाभास की परीक्षा हो सकती है। मार्दव सल्ल-धर्म का एक अंग है।
आर्जव-ऋजुता-सालता-मायाचार हीनता का नाम आर्जव है । इधर की बात उधर कहना-जिसे कि व्यवहार में चुगलखोरी कहते है-आर्जव नहीं है । इसी प्रकार जिह्वा पर अंकुश न रख सकने के कारण मनमाना बकवाद करना और असभ्यताका परिचय देना, फिर कहना कि-हमारा दिल तो साफ है; जैसा मन में आता है वैसा साफ कह देते है--यह भी आर्जव नहीं है । मन में आये हुए दुर्भावों को दबा रखना गुण है न कि दोष । उनका नाश करना सर्वोत्तम है परन्तु अगर उनका नाश न हो सके तो उन्हें मन में ही रोककर धीरे-धीरे नाश करने का प्रया भी अच्छा है। आर्जव-धर्म का नाश वहीं होता है-जहाँ पर प्रति हिंसा करने के लिये भाव छिपाये जाते हैं । किसी को मारने के लिये तलवार छिपाकर रखना और चलती हुई तलवार को रोक लेना, इन दोनों में जैसा अन्तर है-वैसा ही अन्तर मायाचार से हदय के भाव छिपाने तया मानसिक आवेगों को रोक लेने में है।
आर्जव-धर्म का यह मतलब नहीं है कि अपनी या दूसरे की प्रत्येक बात दुनिया के सामने खोलकर रख देना चाहिये । मतलब यही है कि किसी के साथ अन्याय करने के लिये ऐसा आचरण न करना चाहिये-जिससे वह धोखा खाकर अन्याय का शिकार बन सके । आर्जव-धर्म के नाम पर शिष्टाचार या सभ्यता को तिलाबलि देने की ज़रूरत नहीं है, परन्तु यह याद रखने की सख्त ज़रूरत है कि अपने किसी व्यवहार से दूसरा आदमी धोखा न खा जाय, ठगा न जाय ।