Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 367
________________ गुणस्थान ] [ ३५९ गुणस्थानों के भेद न्यूनाधिक कर दिये जाय तो कुछ हानि नहीं है । एक मार्ग के बीस कोस के बीस भाग कल्पित करने की अपेक्षा अगर कोई पाँच पाँच योजन के चार भाग करें या चालीस मील के चालीस भाग करें तो इससे मार्ग छोटा बड़ा नहीं होनेवाला है । व्यवहार की सुविधा देखना चाहिये । यही बात गुणस्थानों की है । आजकल गुणस्थान चौदह माने जाते हैं । यहाँ इनका संक्षेप में परिचय दिया जाता है। (१) मिध्यात्व - जब प्राणी में सम्यदर्शन और सम्यक् चारित्र बिलकुल नहीं होता, तब वह इस श्रेणी में रहता है। छोटे कीडों से लगाकर बड़े बड़े पण्डित, तपस्त्री, राजा आदि तक इस श्रेणी में रहते है, क्योंकि वास्तविक आत्मदर्शन के बिना उनकी अन्य उन्नति का कुछ मूल्य नहीं है । (२) सासादन - मिथ्यात्व गुणस्थान में जो अनन्तानुबन्धी कषाय होती है – कषाय-वासना के प्रकरण में जिसका विवेचन पहिले किया गया है - वह यहाँ भी होती है, इसलिये इस गुणस्थान बाले की गिनती भी मिध्यास्त्रियों में की जाती है। इसीलिये मिथ्यात्वी के समान इस गुणस्थान के जीव का भी अज्ञानी कहा जाता है । परन्तु इसके मिध्यात्व नहीं होता, इसलिये मिथ्यात्र गुणस्थान से यह उच्चश्रेणी का गुणस्थान हैं । परन्तु जब अनन्तानुबन्धी कषाय आ गई, तब मिध्यास्त्र आने में देर नहीं लगती । इसलिये इस गुणस्थान वाला शीघ्र ही मिथ्यात्व गुणस्थान में पहुँच जाता है । सासादन का समय एक सैकिण्ड से

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