Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 365
________________ गुणस्थान ] [ ३५७ स्थान तो असंख्यात हैं । इस विषय में आत्मा की जितनी परिणतियाँ हैं, उतने गुणस्थान हैं। उनको हम कल्पना से सङ्कलित करके अमुक भागों में रख सकते हैं । जिस प्रकार नदी के एक प्रवाह को हम 'कोस' आदि के कल्पित मापों से विभक्त कर सकते हैं परन्तु इससे उस प्रवाह में कोई अमिट रेखाएँ नहीं बन जाती, न वह प्रवाह ही टूटता है जिससे एक भाग से दुसरा भाग बिलकुल अलग मालूम पड़े, इसी प्रकार गुणस्थानों की बात है । एक गुण. स्थान से दूसरे गुणस्थान की सीमा इस प्रकार भिड़ी हुई है कि वह एक प्रवाह-सा बन गया है। गुणस्थानों का क्रम, दर्शन और चारित्र का क्रम है । इन दोनों के भले-बुरे रूपों की विविधता से यह गुणस्थान का प्रवाह या मार्ग बना है । ज्ञान के विकास से गुणस्थान का कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि पदार्थों के जानने न जानन से गुणस्थान बढते घटते नहीं है । नीचे गुणस्थानवाला भी अधिक ज्ञानी हो सकता है और उँचे गुणस्थानवाला भी कम ज्ञानी हो सकता है। तेरहवें गुणस्थान में जो ज्ञान की पूर्णता बतलाई जाती है, वह सत्यता की दृष्टि से है, बाह्य पदायों की दृष्टि से नहीं है। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को विभक्त करना भी बड़ा कठिन है। वे एक दूसरे में इस प्रकार अनुप्रविष्ट है कि उनमें शब्दिक अन्तर क्तलाना भले ही सरल हो, परन्तु गम्भीर विचार करने पर वह अन्तर मिट-सा जाता है । अथवा वे एक ही मार्ग के पूर्वापर भाग की तरह मालूम होने लगते हैं ! इन दोनों के अभेद का निर्देश करने के लिये जैन-शाखों की दो बातें अच्छी विचार

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