Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 372
________________ ३६४] [जैनधर्म-मीमांसा (८-९) अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुण-: स्थानों की आवश्यकता नहीं मालूम होती है । वास्तव में इन्हें सातवें गुणस्थान में ही शामिल रखना चाहिये । अपूर्वकरण अर्थात् समभाव के ऐसे अपूर्व परिणाम, जो उसे पहिले कभी नहीं मिले थे। किसी भी प्रकार का आत्मिक उत्थान होते समय परिणामों में ऐसी निर्मलता आती है, जो इकदम नई मालूम होती है । उसी का नाम अपर्वकरण है । जब जीव मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी बनता है, तब भी ऐसे ही नये परिणाम होते हैं । हाँ, वे सम्यक्त्र के अनुरूप होते हैं, इसलिये यहाँ की अपेक्षा छोटी श्रेणी के होते हैं, परन्तु है वे अपूर्वकरण । जब उनको वहाँ नया गुणस्थान नहीं बनाया, तब इनको यहाँ नया गुणस्थान बनाने की ज़रूरत नहीं है। यही बात अनिवृत्तिकरण के विषय में है । यह परिणामों की वह अवस्था है जब इस श्रेणी के अन्य प्राणियों के परिणामों से उसके परिणामों का भेद नहीं रहता। इन अवस्थाओं में इतना कम अन्तर है कि इनके लिये स्वतंत्र गुणस्थान बनाने की जरूरत नहीं मालूम होती : विकारों को दूर करने की तरतम अवस्थाओं को विस्तार से समझाने के लिये इन्हें अलग गुणस्थान बनाया गया है। आजकल उस विस्तार को समझाना कठिन है । वह तो जम्बूस्वामी के साथ ही चला गया । आजकल भी वह अवस्था प्राप्त होती है, परन्तु उसका श्रेणी विभाग दूसरे ही ढंग का होगा । खैर, यहाँ कहना इतना ही है कि जिस प्रकार सम्यक्वोत्पत्ति के अपर्वकरण अनिवृत्ति वरण को प्रथम गुणस्थान में शामिल रक्खा, उसी प्रकार पूर्णसंयम की उत्पत्ति के अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण को अपमत्तविरति

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