Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 374
________________ ३६६ ) (जैनधर्म-मीमांसा में शामिल करने से १२ ही कहे जा सकते हैं। उपंसहार। __ चारित्र का विस्तृत विवेचन कर दिया है । सामायिक परि. स्थिति के कारण जैन-शास्त्रों में चारित्र का वर्णन निवृत्तिप्रधान कहा गया है। वह भी ठीक है, परन्तु मैंने यहाँ उसके दोनों पह. लुओं को समतोल रखने की कोशिश की है । भविष्य में जब किसी एक तरफ अधिक जोर पड़ जाय तो दूसरी तरफ भी जोर डालकर उसे समतौल कर देना चाहिये । इस वर्णन में एक बात बहुत से जैन-बन्धुओं को खटक सकती है कि मुनि संस्था में गृहस्थ संस्था से बहुत कम भेद रक्खा गया है, इसलिये भविष्य में इसका शीघ्र दुरुपयोग होगा। इसके उत्तर में मेरा कहना है कि मुनिसंस्था का जो आज दुरुपयोग हो रहा है, वह कुछ कम नहीं है । बाहर से अपरिग्रहता का जो दंभ-जाल फैला हुआ है, उसके कारण उसका सुधार भी कठिन हो रहा है । तथा समाज के उपर उसका ऐसा बोझ है कि अगर समाज उसे न उठावे तो समाज को नाक कट जाने का डर है। मैंने इस दुःपरिस्थिति से बचाव किया है । अगर शीघ्र दुरुपयोग भी होगा तो भी उसका सुधार भी शीघ्र होगा, क्योंकि ऐसे साधुओं का निर्वाह करने के लिये समाज कुछ बँधी हुई नहीं है । उन्हें अपने पेट के लिये मजूरी करना पड़ेगी और इतने पर भी उनके मरने के बाद उनकी सम्पत्ति पर समाज का अधिकार होगा। यह एक ऐसा नियम है कि इससे साधुसंस्था के दुरुपयोग में कठि

Loading...

Page Navigation
1 ... 372 373 374 375 376 377