Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 373
________________ गुणस्थान ] में शामिल रखना चाहिये। (१०) सूक्ष्मसांपराय- यह अवस्था यथाख्यात संयम के अति निकट की है । इसमें किसी से द्वेष तो रहता ही नहीं है, परन्तु थोड़ा-सा राग रह जाता है, जो कि पूर्ण समभाव में कमी करता है। (११) उपशांत मोह । ये दोनों पूर्णसमभाव के (१२) क्षीणमोह । गुणस्थान हैं । इनमें अन्तर इतना ही है कि उपशांत-मोही का समभाव स्थाणं नहीं होता, जब कि क्षाणनोही का स्थायी रहता है। (१३) सयोग केवली- क्षीणमोह होने पर ही पूर्ण सत्य की प्राप्ति होती है । बिलकुल अकषाय होकर जब मनुष्य सत्य की खोज करता है, तब उसे भगवान सत्य के दर्शन होते हैं । यही आत्मा का परम विकास है । इसी अवस्था में वह केवली अहन्त, सर्वज्ञ, जीवन्मुक्त, स्थितिप्रज्ञ आदि कहलाता है । उपशांतमोही इस अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि इस अवस्था को प्राप्त होने पर फिर किसी का पतन नहीं होता। . (१४) अयोग केवली - मृत्यु के समय केवली करीब एक सेकेण्ड के लिये पूर्ण निश्चल हो जाता है । वही निश्चलावस्था अयोगकेवली की अवस्था है । निवृत्ति प्रधान होने से वर्तमान जैन मान्यता के अनुसार ११३ गुणस्थान में रत्नत्रय [सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ] की पूर्णता मानी जाती हैं । परन्तु वास्तव में वह तेरहवें में ही हो जाती है । इस प्रकार आत्मा के क्रम-विकासको बतलानेवाले १४ गुणस्थान हैं । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को अप्रमचविरति

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