Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 371
________________ गुणस्थान ] भी होता है । ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में देशविरति का विवेचन किया गया है। ___ (६) प्रमत्तविरति-इसमें अहिंसा आदि पाँच महाबों का पालन होता है, या साधु-संस्था के ग्यारह मुलगुणों का पालन होता है । परन्तु यहाँ प्रमाद रहता है । कभी कभी कर्तव्य कार्य सामने रहने पर भी आलस्यादि के वश से जो अनादर बुद्धि पैदा हो जाती है, उसे प्रमाद कहते हैं । विकथा, कषाय, इन्दियविषय, निद्रा और प्रणय ये प्रमाद के भेद हैं । यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि इनके होने से ही प्रमाद नहीं हो जाता; किन्तु जब इनकी तीव्रता इतनी होती है कि कर्तव्य कार्य में भी अनादर बुद्धि पैदा करदे तभी इन्हें प्रमाद-रूप कह सकते हैं, अन्यथा नहीं । इसलिये किसी को सोते देखकर यह न समझना चाहिये कि यह प्रयादी है, किन्तु असमय में सोते देखकर, अधिक समय तक सोते देखकर उसे प्रमादी कह सकते हैं। इसी प्रकार कषाय की बात है। यों तो कषाय सूक्ष्यसांपराय गुणस्थान तक रहती है, परन्तु वहाँ प्रमाद नहीं माना जाता । शारीरिक आवश्यकतावश केवली भी सोता है, परन्तु यह प्रमादी नहीं है। (७) अप्रमत विरति-प्रमाद के न रहने पर अप्रमत्त गुणस्थान होता है । संयमी मनुष्य सैकड़ों बार प्रमत्त और अप्रमत्त अवस्था में परिवर्तन करता रहता है । कर्तव्य में उताह का बना रहना अप्रमत्त अवस्था है, वह अवस्था सदा नहीं रहती, इसलिए घोड़े ही समय में फिर प्रमत्तता आ जाती है।

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