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[ जैनधर्म मीमांसा भी थोड़ा है । जब कोई सम्यक्त्वी सम्यक्त्र से भ्रष्ट होता है तब बीच में एकाध सैकिण्ड के लिये यह अवस्था प्राप्त करता है । सासादन-वाले को मिथ्यात्व गुणस्थान में जाने के सिवाय दुसरा कोई मार्ग ही नहीं है।
(३) मिश्र-इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय नहीं होती, इसलिये यह उपर्युक्त दोनों श्रेणियों से ऊँची श्रेणी का गुणस्थान है परन्तु इसमें पूर्ण विवेक प्राप्त नहीं होता; सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रण होता है, इसलिये इस गुणस्थान को मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
जिस समय किसी नीव को सत्य का दर्शन होता है, तब वह आश्चर्यचक्ति-सा हो जाता है । उसके पुराने संस्कार उसको पीछे की ओर खींचते हैं और सत्य का दर्शन उसे आगे की ओर खींचता है । यह चकित अवस्था थोड़े समय के लिये होती है । इसके बाद या तो वह मिथ्यात्व में ही गिर पड़ता है या सत्य को प्राप्त करता है।
(४; अविरत सम्यक्त्व- इसमें जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्व का वर्णन पहिलं कर चुके हैं । सम्यक्त्व के साथ स्वरूपाचरण चारित्र भी होता है यह बात भी पहिले कही जा चुकी है। फिर भी इसे अविरत कहा है। इसका कारण यही है कि इसका संयम इतना हलका रहता है कि उसका मानसिक वाचनिक और कायिक प्रभाव स्पष्ट नहीं हो पाता, अथवा साधारण गृहस्थ की अपेक्षा भी कम प्रगट होता है। हाँ, यह सम्यादृष्टि अवश्य बन जाता है।