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जिनधर्म-मीमांसा
सामग्री देती हैं । एक तो यह कि सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । का घात एक ही कर्म के द्वारा होता है जिसे कि मोहनीय-कर्म कहते हैं । जब कि जुढे-जुदे गुणों का घात करने के लिये जुदेजुदे कर्म हैं तो सिर्फ सम्यग्दर्शन और सम्यक्रचारित्र के घात के लिये ही एक कर्म क्यों रक्खा गया ? इसका कारण दोनों की भभिन्नता है, दूसरी बात यह कि सम्यग्दर्शन के साथ स्वरूपाचरण चारित्र अवश्य होता है । स्वरूपाचरण एक ऐसा चारित्र है कि जिसको बाह्याचार के रूप में परिणित करना कठिन है, या बाबाचार के रूप बतला सकना अशक्य है। वैसे देश-विरति महाव्रत और यथाख्यात चारित्र (पूर्णसमभाव ) भी स्वरूपाचरण अर्थात् । मात्मा के भीतर का आचरण है परन्तु इसका बाह्यरूप भी दिखलाई देता है, इसलिये उनके नाम दूसरे रख दिये गये हैं । सम्यग्द. र्शन के साथ स्वरूपाचरण का अविनाभाव बतलाना भी दोनों के अभेद का सूचक है । सच तो यह है कि सम्यग्दर्शन के रूप में हम जिस बात का विवेचन करते हैं वह तो स्वरूपाचरण-चारित्र से परिष्कृत किया हुआ ज्ञान है । उसी का साहचर्य खरूपाचरण से बतलाया जाता है । सम्यग्दर्शन चारित्र की एक अनिवर्चनीय प्रारम्भिक अवस्था है । इसध्येि पहिले चार गुणस्थान सम्यग्दर्शन ! से सम्बन्ध रखते हैं, और पिछले सम्यक चारित्र से, यह कहना भी एक धारा के कल्पित भेद करने के समान है । र, गुणस्थान के विवेचन के लिये यहाँ इनमें भेद मानना आवश्यक है।
चारित्र के स्तृित विवेचन के बाद और गुणस्थान का संक्षेप में म बतलादेने के बाद अब यह कहने की जरूरत नहीं रहती कि