Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 364
________________ : ३५६ ] [ जैन धर्म-मीमांसा (६) अनर्थदंड विरति - इसका विवेचन कुछ पहिले ' किया गया 1 (७) भोगोपभोग - परिसंख्यान- इसका भी विवेचन अभी ही हुआ है । (८) शिक्षात पहिले जो सात शिक्षाव्रत बतलाये गये हैं उन सबका पालन करना । ( ९ ) निरतिचारिता - पहिले जो अहिंसादि पाँच त्रतों के अतिचार बतलाये गये हैं, उनका त्याग करना | (१०) इन्द्रिय-जय - इसका वर्णन महाव्रती के ग्यारह मूलगुणों में हुआ है ! (११) अपरिग्रहता अपरिग्रह की जो छः श्रेणियाँ बतलाई गई हैं, उनमें से पहिली तीन श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी में रहना । प्रतिमाओं के विवेचन के साथ चारित्र के विषय में मुख्यमुख्य बातों का संक्षिप्त विवेचन समाप्त होता है । परन्तु आत्मिक विकास के पूर्वक्रम को समझने के लिये गुणस्थान के विवेचन पर एक नज़र डाल लेना ज़रूरी है । इस प्रकार अन्त में गुण-स्थानों का भी संक्षेप में विवेचन कर दिया जाता है । गुणस्थान यहाँ पर गुण शब्द का अर्थ आत्मविकास का अंश है । आत्मविकास के अंश ज्यों ज्यों बढ़ते जाते है, त्यों त्यों गुणस्थानों की वृद्धि मानी जाती है । गुणस्थानों को चौदह मागों में विभक्त किया है | यह वर्णन करने की सुविधा के लिये है; अन्यथा गुण 1 गया

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