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[ जैनधर्म-मीमांसा
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कभी और कहीं कोई पुस्तक नीची कक्षा में रहती है और अन्यत्र वही ऊँची कक्षा में भी पहुँच जाती है । चारित्र के अभ्यासक्रम में भी यही बात है । आचार का एक नियम कोई पाँचवीं प्रतिमा में रखता है तो कोई सातवीं में या आठवीं में। इस प्रकार पाठयक्रम के समान चारित्र का अभ्यासक्रम भी बदलता रहता है और उसे बदलते रहना चाहिये | इसके अतिरिक्त कोई विद्यापीठ अपनी पढ़ाई ग्यारह भागों में विभक्त करता है; कोई तीन या चार भागों में । इसलिये कोई ग्यारह परीक्षाएँ लेता है, कोई तीन परिक्षाएँ लेता है । इसी प्रकार अभ्यासक्रम में भी बात है । वैदिकधर्म ने गृहस्थ और वानप्रस्थ या एक बानः प्रस्थाश्रम में जो पाठ पढ़ाया वही जैनियों ने ग्यारह भागों में विभक्त किया । आज कोई चार पाँच आदि भागों में विभक्त कर सकता है । अभ्यासक्रप में परिवर्तन करने हे या न्यूनाधिक भागों में विभक्त करने से कुछ भी हानि नहीं है | असली बात तो यह है कि मनुष्य को पूर्ण समभात्री निस्वार्थ अर्थात् महाव्रती बनाया जाय, भले ही वह बारादृष्टि से निवृत्ति प्रधान हो या प्रवृत्ति प्रधान ।
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समय समय पर प्रतिमाओं के नये नये विधानों की ज़रूरत तो रहेगी ही, परन्तु देशकाल के अनुसार कुछ प्रतिमाओं का विधान बनाना चाहिये, जिससे अगर कोई कक्षा के अनुसार अपने जीवन का विकास करना चाहे तो कर सके। परन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि अगर कोई इन कक्षाओं में नाम न लिखावे तो उसको प्रमाणपत्र न मिलेगा, परन्तु इसी से वह असंयमी न कहलायेगा । जिस प्रकार उच्च शिक्षणसंस्थाओं का उपयोग किये बिना भी कोई