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[जैनधर्म-मीमांस
स्वयमारम्भ वर्जन- व्यापार धन्धे का काम अपने हाथ
से नहीं करना, सिर्फ नौकरों से कराना ।
प्यारम्भ वर्जन- नौकरों से भी ये काम न कराना । उद्दिष्टभक्त वर्जन +- अपने उद्देश से बनाया हुआ भोजन भी न करना; सिर मुँडाना या सिर्फ चोटी रखना ।
श्रमणभृत प्रतिमा- सिर मुँडाना या लौच करना; रजाहरण ओघा ग्रहण करना ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रतिमाओं के जो पाठ प्रचलित हैं उनका अर्थ भी इतने से हो जाता है। जो कुछ विशेषता है, वह साधारण शब्दार्थ से समझी जा सकती है।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही पहिली प्रतिमा का नाम दर्शन - प्रतिमा रखते हैं । उसमें सम्यग्दर्शन धारण करने का उपदेश है, चारित्र की कोई विशेष बात नहीं है । परन्तु सम्यग्दर्शन का धारण करनेवाला तो साधारण जैन भी होता है, फिर इस प्रतिमाधारी में उससे क्या विशेषता आई ? दूसरे शब्दों में यों पूछा जा सकता है कि चौथे गुणस्थान में ही क्षायिक सम्यक्त्व तक हो सकता है, जो कि पूर्ण निर्मल सम्यक्त्व है; फिर दर्शन प्रतिमाघारी जो कि पाँचवें गुणस्थान वाला है--उसमें क्या विशेषता है ? यह प्रश्न बहुत से जैन लेखकों के सामने रहा है, परन्तु इस विषय में
+ उद्दिकडं मतं पिवज्जए किमु य सेसमारम्भं । सो होइ उ खुरमुंडो सिहलिं वा धारए कोत्रि ||
मैं खुरमुण्डो लोएण व श्यहरणं आम्हं च घत्तूर्ण । error विहर धम्मं कारण फासतो ||
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