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[जैनधर्म-मीमांसा
छोड़कर न भागे, मुनिसंस्था में आकर के उसके नियमों का मंग न करे, आदि बातों का उनने खूब ध्यान रक्खा था । इसलिये ऐसा मालूम होता है कि ये प्रतिमाएँ मुनिसंस्था के उम्मेदवारों के लिये बनाई गई थीं, परन्तु पीछे से सर्व साधारण के लिये उपयोगी होने से सभी के लिये हो गई फिर भले ही वह मुनिसंस्था का उम्मे दवार हो या न हो। इसी रूप में इन प्रतिमाओं का प्रचार हो पाया। मुनि संस्था के उम्मेदवारों ने तो इनका बहुत कम उपयोग किया है । खैर, अब मैं इन प्रतिमाओं का सामान्य परिचय देकर वर्तमान युग के अनुकूल संशोधन करूँगा ।
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दर्शन - शंकादि दोषरहित सम्यग्दर्शन का पालन करना | यह अर्थ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को मान्य है । परन्तु किसी किसी दिगम्बर लेखक ने इसमें निरतिचार मूलगुणों + पालन का भी विधान किया है।
व्रत- निरतिचार 8 पाँच अणुव्रतों का पालन करना | दि
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* संकादि सह विरहिय सम्मदंसण जुओ उ जो जन्तु । सगुण विमुक्का एसा खलु होह परमा उ । ४ सम्यग्दर्शनशुद्ध: संसारशरीग्भागनि विण्णः । पञ्जगुरुचरणशरणो दर्शनिकस स्वपथगृझः ।
५-१६ ० क० ।
+ पाक्षिकाचारसंस्कार दृढ़कित विशुद्धदृक् । वाङ्गाधनिर्विण्णः परमेष्ठिपदेकधीः । ३-७ ॥ निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वप्रगुणोत्सुकः । न्याय वृतिं तनुस्थित्य तन्वन् दर्शनिको मतः ॥ ३८ * सण पडिबाजुची पालेन्तोऽणुव्व निरहयारे । कम्पाइगुणजओ जीवो इह होइ वय पडिमा |