Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 363
________________ प्रतिमा ] उच्च विद्वान हो सकता है;-हो, उसे उपाधि या प्रमाणपत्र न मिलेगा - उसी प्रकार इन प्रतिमाओं की कक्षा के बाहर रहकर भी काई संयमी रह सकता है । यह तो सिलसिलेवार संयम का अभ्यास करने के लिये सुलभ मार्ग है । मतलब यह कि ज्ञान शिक्षा के समान इस चारित्र-शिक्षा की भी उपयोगिता समझना चाहिये । अस्तु । ग्यारह प्रतिमाएँ ये हैं (१) मूलबत- सर्वधर्म समभाव, सर्वजाति-समभाव, सुधारकता (विवेक), प्रार्थना, शील, दान, मांस-त्याग, मद्य-त्याग का पालन करना। (२) अहिंसकता-पहिले जो अहिंसा की व्याख्या की है उसके अनुसार उसका पालन करना । प्रतिमाएँ अभ्यास के लिये होने से अहिंसा सत्य आदि को जुदा-जुदा कर दिया है। (३) सत्यवादिता- पहिले जो सत्य की और अचार्य की व्याख्या की गई है तदनुसार उनका पालन करना । झूठ बोले बिना या झूठ का व्यवहार किये बिना चोरी नहीं हो सकती, इसलिये दोनों का त्याग एक साथ होना चाहिये । साधारण गृहस्थ स्थूल असल और चोरी का त्याग कर सकता है, इसलिये वही यहाँ अभीष्ट है। . (१) कामसन्तोष-पुरुष का स्वपनी सन्तुष्ट होना तथा स्त्री का रूपतिसन्तुष्ठा होना। (५) परिग्रह परिमाण- अपरिग्रह के विवेचन में अपरि. मह की जो छः श्रेणियाँ बताई गई है उनमें से पिछली तीन भेणियों में से किसी एक श्रेणी में रहना ।

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