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प्रतिमा ]
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> इच्छा थी कि गृहस्थ और सन्यास के बीच में कोई एक आश्रम अवश्य हो जिसमें मनुष्य संयम का अभ्यास करे । म० महावीर की उसी इच्छा का फल, प्रतिमाओं का यह विधान है । हाँ, यह बात अवश्य है कि इस विधान को जैसी चाहिये वैसी सफलता न मिली ।
चारित्र के जब अन्य नियम देश-काल के अनुसार बदलते रहे है, तत्र प्रतिमाओं का बदलते रहना आवश्यक था; क्योंकि प्रतिमाएँ चारित्र-मियम रूप नहीं हैं किन्तु नियमों के पालन का एक क्रम हैं। बहुत से नियमों में कोई किसी नियम का पहिले अभ्यास करता है और कोई पीछे, इसलिये प्रतिमाओं में अदलाबदली होना स्वाभाविक था । फिर इनमें जितना परिवर्तन होना चाहिये था उतना नहीं हुआ । इसका कारण यही है कि इनका यथेष्ट प्रचार न हो सका । जैनशास्त्रों में प्रतिमाओं के सिर्फ तीन पाठ मुझे मिले हैं । सम्भव है और भी हों । इनमें एक तो श्वेतार सम्प्रदाय का है और दो दिगम्बर सम्प्रदाय के । पाठकों की सुविधा के लिये मैं तीनों पाठ एक साथ दे रहा हूँ |
भी
तृतीयपाठ
मूलवत
व्रत
अर्चा
पर्वकर्म
अकृषिक्रिया
વિચામા
प्रथमपाठ
१ दर्शन
२ व्रत
३ सामायिक
४ प्रोषध
५ पडिमा डिमा ६ कर्जन
द्वितीयपाठ
दर्शन
व्रत
सामायिक
प्रोषधीपवास
सचित्तत्याग
रात्रिभुक्ति त्याग