Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 354
________________ ३४६ ) [जैनधर्म-मीमांसा प्रोषध इसलिये है कि भोजन की तरफ से निराकुल रहकर मनुष्य अधिक सेवा, स्वाध्याय आदि कर सके तथा स्वास्थ्य भी ठीक रख सके । इन उद्देश्यों को धक्का पहुँचाने से अतिचार हो जाता है। सल्लेखना-१ जीवन की इच्छा रखना, २ मरने की इच्छा रखना (उस समय मनुष्य को मृत्यु और जीवन में समदर्शी होना चाहिये), ३ मित्रों का स्मरण कर करके दुखी होना, ४ पुराने भोगों का स्मरण करना, ५ भविष्य के लिये भोगों की लालसा रखना। अतिचार अनेक हैं । यहाँ तो नमूने के तौर पर मुख्य मुख्य गिनाये गये हैं। जैनाचार्यों में इस विषय में भी अनेक मतभेद हैं, जिसमें तात्त्विक हानि तो नहीं हैं, परन्तु उससे इतना तो सिद्ध होता है कि ये आचार्य अरहन्त के नाम की दुहाई देकर देशकाल के अनुसार स्वेच्छा से नये नये विधान बनाया करते थे। उनका यह प्रयत्न लोगों को समझाने के लिये उचित ही था। प्रतिमा। प्रतिमा शब्द का अर्थ यहाँ कक्षा या श्रेणी है । गृहस्थों को आचार में धीरे-धीरे समुन्नत बनाकर पूर्णसंयमी बनाने के लिये ये श्रेणियाँ हैं । मुनि-संस्था में प्रवेश करने के पहिले इन श्रेणियों का अभ्यास कर लेना उचित है । महात्मा महावीर के पहिले वर्णाश्रम व्यवस्था का जोर था । उसमें अनेक विकार आ जाने से महात्मा महावीर ने उसे तोड़ दिया । परन्तु किसी न किसी रूप में इनका रखना अनिवार्य और आवश्यक था । वर्णव्यवस्था जन्म से न रही, कम से रही । इसी प्रकार आश्रम-व्यवस्था भी उम्र के हिसाब से न रही, किन्तु समय के हिसाब से रही । म० महावीर की भी

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