Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 352
________________ ३४४ ] [जैनधर्म-मीमांस १- मन की असंलग्नता, २ - वचन की विसंलग्नता, ( मौन में वचन की असंलग्नता रहती है, परन्तु मौन में भी स्वाध्याय अच्छी तरह होता है, इसलिये वचन की असंलग्नता अतिचार नहीं है, किन्तु विसंलग्नता अर्थात् स्वाध्याय के समय विचार किसी और बात का करना और बोलना कुछ और, अतिचार है । हाँ, कोई आवश्यक सूचना करना पड़े तो यह अतिचार नहीं है ) । ३ अनादर से पढ़ना सुनना आदि । ४ भूल जाना । ५ पक्षपात! इससे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति में बाधा पड़ती है, इसलिये यह बड़ा भारी अतिचार है । काय की असंलग्नता या विसंलग्नता को अतिचार नहीं कहा, . इसका कारण यह है कि चलते फिरते या लेटे हुए भी स्वाध्याय हो सकता है. इसलिये वह दोष नहीं है । अतिथिसेवा - मुनियों को भोजन देने की दृष्टि से पुराने समय में अतिचार बताये गये थे । इसलिये सचित्त वस्तु से ढक देना, उसमें रखना, देय वस्तु दूसरे की बता देना, अनादर से देना, काल का उल्लंघन करना अतिचार थे । सचित्त का अर्थ अभक्ष्य करने पर आज भी ये अतिचार कहे जा सकते हैं। परन्तु अतिथिसेवा में सिर्फ भोजन कराना ही न समझ लेना चाहिये; अन्य प्रकार की सेवा का भी यथायोग्य समावेश करना चाहिये । दान- इसको एक अलग व्रत के रूप में रक्खा गया है । इसके मुख्य अतिचार निम्नलिखित मानना चाहिये- ९ निरुपयोगी कार्यों में देना, २ अहङ्कार करना, ३ यश की वासना को मुख्यता देना, ४ बदले की वासना रखना, ५ अनादर या अनिच्छा से देना आदि ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377