Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 319
________________ गृहस्थधर्म] [१११ उपदेश देने का निषेध किया है, परन्तु यह निवृत्येकान्तवाद का फल है । जिसको हम न्याय्य और आवश्यक वृत्ति कह सकते है, . उसके विषय में उपटेश भी दे सकते हैं । मनुष्य के जीवन निर्वाह के लिये जब कृषि आदि भावश्यक है, तब उसका प्रचार करना उनमें सुधार करने तथा सतर्क रहने का उपदेश देना उचित है। इते पापोपदेश न समझना चाहिये । हाँ, शिकार वगैरह संकल्पीहिंसा आदि का उपदेश अवश्य पापोपदेश है। पीछे के जैन लेखकों को भी पापोपदेश के अयवा अनर्थ-दण्ड के अर्थ में संशोधन करना आवश्यक मालूम हुआ है-इसीलिये हेमचन्दाचार्य ने * कहा है कि पारस्परिक व्यवहार के सिवाय दूसरे स्थानों पर ऐसा उपदेश न देना चाहिये, अर्थात् पारस्परिक व्यवहार में ऐसा उपदेश अनर्थ-दण्ड नहीं है। इस संशोधन से पापोपदेश की व्याख्या करीब करीब ठीक हो जाती है। पारस्परिक व्यवहार को बात उनने हिंसादान के विषय में भी की है, जिसका अनुकरण पं. आशाधरजी ने भी सागार-धर्मामृत में किया है । हॉ. यहाँ इतनी बात और कहना है कि उदार-चरित मनुष्य के लिये सारा जगत् व्यवहार का विषय है, और प्रत्येक मनुष्यको उदार होना चाहिये । इसलिये जो काम समाज के लिये आवश्यक है, वह पारस्परिक व्यवहार के विषय में हो या अविषय में, इसका विचार ही न करना चाहिये । मतलब यह है कि निवृत्ति * वृषभान दमय, क्षेत्रं कृष, षडय वाजिनः । । दाक्षिण्याविषयं पापोपदेशोयं न पुज्जते । -योगशास्त्र ३-७३।

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