Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 348
________________ ३४०] [जैनधर्म-मीमांसा दोष या अतिचार सैकड़ों हो सकेत हैं, परन्तु उनमें से मुख्य मुख्य पांच पांच दोष चुनकर गिनाये गये हैं। यहां उनका संक्षेप में विवेचन किया जाता या नामावलि दी जाती है। जो अतिचार वर्तमान काल की दाष्टे से अनाचार रूप है अथवा जो दोष-रूप ही नहीं है, उसका स्पष्टीकरण उस जगह कर दिया जायगा। अहिंसाणुव्रत-१पशुओं को इस तरह जड़ककर बाँधना जिससे उनको हिलना डुलना भी मुश्किल हो जाय (बन्ध], २. उनको निर्दयता से पीटना (वध), ३. कान नाक वगैरह छेदना, ४. उनपर ज्यादह बोझ लादना, ५. खाने-पीने में कमी करना । अगर ये काम दुर्भाव से न किये गये हों तो अतिचार नहीं हैं। सत्याणुव्रत- १. झूठा उपदेश देना । इस अतिचार का साधारणतः जो अर्थ किया जाता है-वह ठीक नहीं है। जानबूझकर अगर झूठी बात का उपदेश दिया जाय तब तो वह अना. चार है । अगर किसी विषय में हमारा विश्वास ही ऐसा हो और तदनुसार ही हमने उपदेश दिन हो तो वह व्रत की दृष्टि से अति. चार नहीं है । वास्तव में इस अतिचार का अर्थ लापर्वाही से बोलना या दुराग्रह करना है । २-श्री पुरुष आदि की चेष्टाओं को प्रगट करना । ३-दूसरे के कहने से झूठी बातें लिखना या नकली हस्ताक्षर * बना देना आदि । यह अतिचार नहीं वास्तव में अनाचार * अन्ये नानुनमननुतिं च यत्किञ्चित्तस्य परप्रयोगवशादेव तेनोक्तमनुठितं चेति वश्चनानिमित्तम लखनम् अन्यसरूपाक्षर करुणमित्यन्ये। -सागारधर्मामृत ४-१५

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