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अतिचार ]
[ ३३९ चायों ने एक सुन्दर उपमा दी है । वे कहते हैं कि जैसे कोई व्यापारी घर का नाश नहीं चाहता, अगर घर में आग लग जाती है तो उसके बुझाने की चेष्टा करता है, परन्तु जब देखता है कि इसका बुझाना कठिन है, तब वह घर की पर्वाह न करके धन की रक्षा करता है। इसी तरह कोई आदमी शरीर का नाश नहीं चाहता, परन्तु जब उसका नाश निश्चित हो जाता है तब वह शरीर को तो नष्ट होने देता है; किन्तु धर्म की रक्षा करता है, इसलिये यह आत्म-वध नहीं कहा जा सकता।
यह आत्म-वध नहीं है, किन्तु इसका दुरुपयोग न होने लगे, इसके लिये सतर्कता रखना चाहिये ।
अतिचार । श्रावकों के लिये जो बारह व्रत बताये गये हैं उनका वर्णन हो चुका, परन्तु व्रतों की रक्षा के लिये उनके दोषों का जानना आवश्यक है । अतिचार व्रत का दोष माना जाता है । अनाचार व्रत का नाश माना जाता है। अतिचार में भी व्रत का नाश होता है, परन्तु कुछ अंश में उसकी रक्षा रहती है । इसलिये आंशिक भंग को अतिचार आर पूर्ण भंग को अनाचार कहते हैं।
• यथा वाण: विविध पण्यदानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः तद्विनाशकारणे चांपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । दुःपरिहारे च पण्याविनाशो यथा भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपुण्यसत्यप्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पातमाभिवाञ्छति । तदप्लवकारणे चौपस्थिते स्वगुणाविरोधन पारिहरति दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति यथा प्रयतति कथमात्मवधां मवेत् ।
-त. राजवार्तिक ७-२२-८