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सल्लेखमा ]
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जैसे, उसकी परिचर्या करना अशक्य हो और परिचर्चा करने पर भी उसकी असह्य-वेदना में कमी न की जा सकती हो, आदि । यह बात पहिले ही कही जा चुकी है कि सल्लेखना करने से अगर किसी का स्वास्थ्य सुधर जाय तो सल्लेखना बन्द कर देना चाहिये ।
प्रश्न-यदि स्वास्थ्य सुधरने पर सल्लेखना बन्द कर दी जाय तो सल्लखना एक प्रकार की चिकित्सा ( उपवास-चिकित्सा) कहलाई । तब व्रतों के प्रकरण में उसके विधान की क्या आव. श्यकता है ! उसे तो चिकित्सा-शास्त्र में शामिल करना चाहिये ।
उत्तर - उपवास-चिकित्सा और सल्लेखना में अन्तर है । चिकित्सा में जीवन की पूरी आशा और चेष्टा रहती है, सल्लेखना उस समय की जाती है जबकि जीवन की न तो कोई आशा रहती है न उसके लिये कोई चेष्टा की जाती है । अकस्मात् कोई एसी परिस्थिति पैदा हो जाय कि उपवाम वगैरह से निराशा में आशा का उदय होकर उसमें सफलता हो जाय तो जबर्दस्ती प्राण. त्याग करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि सल्लेखना आत्महत्या नहीं है, किन्तु आई हुई मौत के सामने वीरता से आत्म-समर्पण करना है। इससे मनुष्य शांति और आनन्द से प्राण-त्याग करता है । मृत्यु के पहिले जो उसे करना चाहिये-वह कर जाता है । मौत अगर टल जाय तो उसे जबर्दस्ती न बुलाना चाहिये ।
सल्लेखना का मुख्य कारण रोग अथवा और ऐसी ही कोई